।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
                                           ईश्वर और प्रकृतिके विधानका तिरस्कार
 
        ईश्वर और प्रकृतिके विधानके अनुसार सृष्टिके आरम्भसे ही जीवोंके जन्म और मरण होते चले आये हैं । जन्म-मरणका कार्य मनुष्यके हाथमें नहीं है, प्रत्युत ईश्वर और प्रकृतिके हाथमें है । जैसे किसी जीवको मार देना मनुष्यका अधिकार नहीं है, प्रत्युत पाप है, ऐसे ही किसी जीवको जन्म लेनेसे रोक देना भी मनुष्यका अधिकार नहीं है, प्रत्युत महापाप है । तात्पर्य है कि ईश्वर और प्रकृतिके विधानसे जन्म और मृत्युका नियन्त्रण अर्थात् जनसंख्याका नियन्त्रण अनादिकालसे स्वतः-स्वाभाविक होता आया है । जैसे, कुत्ते, बिल्ली, सूअर आदिके कई बच्‍चे होते हैं और वे परिवार-नियोजन भी नहीं करते, फिर भी उनसे पृथ्वी भरी हुई नहीं दिखायी देती; क्योंकि उनका नियन्त्रण ईश्वर और प्रकृतिके विधानसे स्वतः होता आया है । उनके विधानमें हस्तक्षेप करना दखल देना पाप, अन्याय है । हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी तथा हिन्दुधर्मके अन्तर्गत आनेवाले जैन, सीख, आर्यसमाजी आदि कोई क्यों न हों, जो कृत्रिम उपायोंसे संतति-निरोध करते हैं, वे धर्मविरुद्ध, नीतिविरुद्ध, ईश्वरविरुद्ध, प्रकृतिविरुद्ध कार्य करते हैं, जिसका इस लोकमें और परलोकमें भयंकर दण्ड भोगना पड़ेगा !
 
        एक बड़े दयालु और परहितमें लगे हुए साधु थे । उनको एक बार भगवान्‌ने दर्शन दिए और वर माँगनेके लिए कहा तो साधुने कहा कि ‘मैं जहाँ जाता हूँ, वहीं लोग कहते हैं कि महाराज, ऐसी कृपा करो कि वर्षा हो जाय । अतः आप ऐसा वर दें कि मैं जहाँ चाहूँ, वहीं वर्षा हो जाय ।’ भगवान्‌ने वर दे दिया । अब बाबाजी जगह-जगह खूब वर्षा करने लगे । अधिक वर्षा होनेसे जहरीले जीव-जन्तु अधिक पैदा हो गए । पशु बीमार हो गये । ज्वर फैलनेसे लोग बीमार होने और मरने लगे । बाबाजीने भगवान्‌को याद किया । भगवान्‌ने कहा कि वर्षाके बाद कुछ दिन सूर्य तपनेसे जलवायु शुद्ध हो जाती है; परन्तु लगातार वर्षा होती रहनेसे विष फैल जाता है । अतः तुम्हारी मनचाही वर्षा होनेसे ही यह दशा हुई है ! बाबाजीने भगवान्‌से कहा कि अब यह व्यवस्था आप ही सँभालो; क्योंकि कब कहाँ किस चीजकी आवश्यकता है, इसको आप ही पूरा जानते हैं−
मेरी चाही मत करो, मैं मूरख अग्यान ।
तेरी चाहि में प्रभो,    है मेरा कल्यान ॥
 
       तात्पर्य है कि भगवान्‌ और प्रकृतिके विधानसे जो होता है, वह ठीक ही होता है; क्योंकि उनकी दीर्घद्रष्टि है, जबकि मनुष्यकी अल्पदृष्टि है । जब लोगोंके हितकी दृष्टिसे भी भगवान्‌ और प्रकृतिका काम अपने हाथमें लेनेसे नुकसान हो गया, तो फिर जिनमें परहितका भाव नहीं है, प्रत्युत स्वार्थभाव है, उनके द्वारा भगवान्‌ और प्रकृतिका काम अपने हाथमें लेनेसे कितना नुकसान होगा ?
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
−‘देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम’ पुस्तकसे