(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
आजकल
स्त्रियोंको
पुरुषके समान
अधिकार
देनेकी बात
कही जाती है,
पर
शास्त्रोंने
माताके
रूपमें
स्त्रीको
पुरुषकी
अपेक्षा
विशेष अधिकार
दिया है—
सहस्रं
तु
पितृन्माता
गौरवेणातिरिच्यते
॥
(मनुस्मृति
२/१४५)
‘माताका
दर्जा
पितासे हजार
गुना अधिक
माना गया है ।’
सर्ववन्द्येन
यतिना
प्रसूर्वन्द्या
प्रयत्नतः ॥
(स्कन्दपुराण
काशी॰ ११/५०)
‘सबके
द्वारा
वन्दनीय संन्यासीको
भी माताकी
प्रयत्नपूर्वक
वन्दना करनी
चाहिये ।’
वर्तमानमें
गर्भ-परिक्षण
किया जाता है
और गर्भमें
कन्या हो तो
गर्भ गिरा दिया
जाता है, क्या
यह स्त्रीको
समान अधिकार
दिया जा रहा
है ?
‘माँ’
शब्द कहनेसे
जो भाव पैदा
होता है, वैसा
भाव ‘स्त्री’
कहनेसे नहीं पैदा
होता । इसलिए
श्रीशंकराचार्यजी
महाराज भगवान्
श्रीकृष्णको
भी ‘माँ’ कहकर
पुकारते हैं—‘मातः
कृष्णाभिधाने’
(प्रबोध॰२४४) ।
उपनिषदोंमें
‘मातृदेवो
भव, पितृदेवो
भव’ कहकर
सबसे पहले
माँकी सेवा
करनेकी
आज्ञा दी गयी
है । ‘वन्दे
मातरम्’ में
भी माँकी ही
वन्दना की
गयी है ।
हिन्दुधर्ममें
मातृशक्तिकी
उपासनाका
विशेष
महत्त्व है ।
ईश्वरकोटिके
पाँच
देवातओंमें
भी मातृशक्ति
(भगवती) का
स्थान है ।
देवीभागवत,
दुर्गासप्तशती
आदि अनेक
ग्रन्थ मातृशक्तिपर
ही रचे गये
हैं । जगत्की
सम्पूर्ण स्त्रियोंको
मातृशक्तिका
ही रूप माना
गया है—
विद्याः
समस्तास्तव
देवि भेदाः
स्त्रियः
समस्ताः
सकला जगत्सु ।
(दुर्गासप्तशती
११/६)
परंतु
भोगीलोग
मातृशक्तिको
क्या समझें ?
समझ ही नहीं
सकते । वे तो
उसको भोग्या
ही समझते हैं ।
शास्त्रोंमें
स्त्रियोंको
पुनर्विवाह
न करके विधवा-धर्मका
पालन करनेके
लिये कहा है
तो यह उनका
आदर है,
तिरस्कार
नहीं ।
धर्म-पालनके
लिये कष्ट
सहना
तिरस्कार
नहीं है,
प्रत्युत
तितिक्षा,
तपस्या है ।
तितिक्षु,
तपस्वी
व्यक्तिका
समाजमें बड़ा
आदर होता है । पुरुष
स्त्रीका
तिरस्कार
करे, उसको
दुःख दे, उसको
तलाक दे, उसको
मारे-पिटे—ऐसा
शास्त्रोंमें
कहीं नहीं
कहा गया है ।
इतना ही नहीं, स्त्रीसे
कोई अपराध भी
हो जाय, तो भी
उसको मारने-पीटनेका
विधान नहीं
है, प्रत्युत
वह क्षम्य है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
−‘देशकी
वर्तमान दशा
और उसका
परिणाम’
पुस्तकसे
|