(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
देशमें
जिस गतिसे
हिंसा बढ़ रही
है, ऐसे बढ़ती रही
तो एक समय
पशुधन नष्ट
हो जायगा और
मांसाहारी
मनुष्य
मनुष्योंको
ही खाने
लगेंगे ! ऐसे
मनुष्य ही
राक्षस होते
हैं ।
रामावतारके
समय भी ऐसी
दशा हुई थी कि
राक्षसोंने
मुनियोंको
खा-खाकर उनकी
हड्डियोंके
ढेर लगा दिये
थे—
अस्थि समूह
देखि
रघुराया । पूछी मुनिन्ह
लागि
अति दाया ॥
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अंतरजामी
॥
निसिचर निकर
सकल मुनि खाए ।
सुनी रघुबीर
नयन जल छाए ॥
(मानस,
अरण्यकाण्ड
९/३-४)
राक्षसोंने
गृहस्थोंको
न खाकर
मुनियोंको ही
क्यों खाया ?
ऐसा अनुमान
होता है कि
घास खानेवाले
मांसकी
अपेक्षा
अन्न
खानेवालेका
मांस बढ़िया
होना चाहिये ।
सिंहके
मुखमें भी
मनुष्यका
मांस लग जाय
तो वह
नरभक्षी बन
जाता है ।
मनुष्योंमें
भी जो संयमी,
ब्रह्मचारी
और साधु
पुरुष हैं,
उनका मांस
ज्यादा
बढ़िया होना
चाहिये;
क्योंकि संयमी
पुरुषकी हर
चीज बढ़िया
होती है ।
आजकल भी हम
देखते हैं कि
जो बछड़े बैल
बना दिये जाते
हैं, उनके
मांसमें वह
शक्ति नहीं
होती, जो बैल न
बनाये हुए
बछड़ोंके
मांसमें
रहती है । अतः
बैल बनाये
हुए बछड़ोंका
मांस
मुस्लिम देशोंमें
सस्ता बिकता
है । इसलिये
राक्षसोंने
गृहस्थोंको
न खाकर संयमी
मुनियोंको
खाया । जितने
भी श्रेष्ठ
पुरुष होते
हैं, वे संयमी
होते हैं । संयमी
पुरुषोंके
नाशसे कितना
महान् पतन
होगा !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
−‘देशकी
वर्तमान दशा
और उसका
परिणाम’
पुस्तकसे
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