।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रत (वैष्णव)
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
 तात्पर्य है कि जाननेवाले भी भगवान्‌ ही हैं, जाननेमें आनेवाले भी भगवान्‌ ही हैं और जानना भी भगवान्‌ ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है । भगवान्‌ने भी कहा है‒
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
                                             (गीता ७/७)
          ‘हे धनञ्जय ! मेरेसे बढ़कर इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है । जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत्‌ मेरेमें ही ओतप्रोत है ।’
 
         तात्पर्य है कि सूत भी भगवान्‌ ही हैं, मणियाँ भी भगवान्‌ ही हैं, माला फेरनेवाले भी भगवान्‌ ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । प्रह्लादजी भगवान्‌से कहते हैं‒
                                   त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः
                                           प्राणेन्दियाणि      हृदयं     चिदनुग्रहश्च ।
                             सर्वं त्वमेव सगुणो विगृणश्च भूमन्
                                          नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥
                                                                         (श्रीमद्भा ७/९/४८)
         ‘अनन्त प्रभो ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्चतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत्‌ एवं सगुण और निर्गुण‒सब कुछ केवल आप ही हैं । अधिक क्या कहूँ, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे अलग नहीं है ।’
 
       सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यह भाव विवेकसे भी तेज है । ज्ञानमार्गमें जड़ और चेतन, सत्‌ और असत्‌का विवेक मुख्य होनेसे यह द्वैतमार्ग है; परन्तु भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌का ही भाव मुख्य होनेसे यह अद्वैतमार्ग है । ज्ञानयोगके आरम्भमें विवेक है, पर भक्तियोगमें आरम्भसे ही भगवान्‌के साथ सम्बन्ध है । अतः भक्ति ज्ञानसे श्रेष्ठ है ।
 
         ज्ञानयोग उन साधकोंके लिये है, जो अत्यन्त वैराग्यवान् हैं‒‘निर्विण्णानां ज्ञानयोगः’ (श्रीमद्भा ११/२०/७) । जो न अत्यन्त वैराग्यवान् हैं और न अत्यन्त आसक्त हैं, उनके लिये भक्तियोग ही सिद्धि देनेवाला है‒‘न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः’ (श्रीमद्भा ११/२०/८) । ज्ञानयोग विवेक-मार्ग है । जबतक विवेक है, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं है, प्रत्युत तत्त्वज्ञानका साधन है । अत्यन्त वैराग्य न होनेसे विवेकमार्गमें असत्‌की सत्ताका भाव रहता है । असत्‌की सत्ताका भाव रहनेसे विवेकप्रधान साधकमें निरन्तर आनन्द नहीं रहता । कारण कि संसार दुःखालय है, इसलिये संसारकी सत्ताका किंचिन्मात्र भी संस्कार रहेगा तो विवेक होते हुए भी दुःख आ जायगा । इस असत्‌की सत्ताके संस्कार भीतर रहनेके कारण ही साधककी यह शिकायत रहती है कि बात तो ठीक समझमें आती है, पर वैसी स्थिति नहीं होती ! उसको कभी तो अपने साधनमें अच्छी स्थिति दीखती है और कभी राग-द्वेष अधिक होनेपर ग्लानि, व्याकुलता होती है कि साधन करते हुए इतने वर्ष बीत गये, पर अभीतक अनुभव नहीं हुआ ! भावमें सत्‌ और असत्‌ दोनों रहनेसे ही ऐसी दुविधा होती है । यदि भावमें एक भगवान्‌ ही रहें‒‘वासुदेवः सर्वम्’ तो ऐसी दुविधा रह ही नहीं सकती ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे