।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
कामदा एकादशी-व्रत (सबका)
अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव


[ पाठकोंसे प्रार्थना है कि इस लेखको मनोयोगपूर्वक धीरे-धीरे, समझ-समझकर पढ़ें । ]

           श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है‒
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
                                                        (२/२४)
      ‘यह सत्य-तत्त्व नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।’

   जैसे, गंगाजी निरन्तर बहती रहती है, पर जिसके ऊपर बहती हैं, वह आधारशिला ज्यों-की-त्यों स्थिर रहती है । गंगाजीका जल कभी स्वच्छ होता है, कभी मटमैला होता है । कभी जल गरम होता है, कभी ठण्डा हो जाता है । कभी तेज प्रवाहके कारण जल आवाज करने लगता है, कभी शान्त हो जाता है । परन्तु आधारशिला ज्यों-की-त्यों रहती है, उसमें कभी कोई फर्क नहीं पड़ता । इसी तरह कभी जलमें मछलियाँ आ जाती है, कभी सर्प आदि जन्तु आ जाते हैं, कभी लकड़ीके सिलपट तैरते हुए आ जाते हैं, कभी पुष्प बहते हुए आ जाते हैं, कभी कूड़ा-कचरा आ जाता है, कभी मैला आ जाता है, कभी गोबर आ जाता है, कभी कोई मुर्दा बहता हुआ आ जाता है, कभी कोई जीवित व्यक्ति तैरता हुआ आ जाता है । ये सब तो आकर चले जाते हैं, पर आधारशिला ज्यों-की-त्यों अचल रहती है । ऐसे ही सम्पूर्ण अवस्थाएँ, परिस्थितियाँ, घटनाएँ, क्रियाएँ आदि निरन्तर बह रही हैं, पर सबका आधार स्वयं (सत्य-तत्त्व) ज्यों-का-त्यों अचल रहता है । परिवर्तन अवस्थाओं आदिमें होता है, तत्त्वमें नहीं ।

       वास्तवमें अवस्थाओंकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । कारण कि जिसका कभी कहीं भी अभाव होता है, उसका सदा सब जगह ही अभाव होता है और वह असत्‌ होता है‒ ‘नासतो विद्यते भावः’ । जिसका कभी कहीं भी अभाव नहीं होता, उसका सदा ही सब जगह भाव होता है और वह सत्‌ होता है‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । अवस्थाओंमें सत्ताका अभाव है और स्वयंमें परिवर्तन (क्रिया) का अभाव है । अज्ञानके कारण ही मनुष्यको स्वयंकी सत्ता अवस्थाओंमें दीखती है और अवस्थाओंका परिवर्तन स्वयंमें दीखता है । अतः अवस्थाओंकी सत्ता मानना भी भ्रम अर्थात्‌ मिथ्या है और स्वयंमें परिवर्तन मानना भी भ्रम है । अवस्थामें स्वयंको देखना भी भ्रम है और स्वयंमें अवस्थाको देखना भी भ्रम है । तत्त्वबोध होनेपर यह भ्रम नहीं रहता ।

     अगर हम अवस्थाओंमें होते और अवस्थाएँ हमारेमें होतीं तो हम एक अवस्थामें ही रहते, दूसरी अवस्थामें जा सकते ही नहीं । एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थामें वही जा सकता है, जो अवस्थाओंसे अलग है । यह हमारा प्रत्यक्ष अनुभव भी है कि कोई भी अवस्था निरन्तर नहीं रहती, पर हम स्वयं निरन्तर रहते हैं ।

    जैसे, जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि और मूर्च्छा‒ये पाँच अवस्थाएँ हैं । जाग्रत्‌-अवस्थामें स्वप्न-सुषुप्ति-समाधि-मूर्च्छाका अभाव है, स्वप्न अवस्थामें जाग्रत्‌-सुषुप्ति-समाधि-मूर्च्छाका अभाव है, सुषुप्ति-अवस्थामें जाग्रत्‌-स्वप्न-समाधि-मूर्च्छाका अभाव है, समाधि अवस्थामें जाग्रत्‌-स्वप्न-सुषुप्ति-मूर्च्छाका अभाव है और मूर्च्छा अवस्थामें जाग्रत्‌-स्वप्न-सुषुप्ति-समाधिका अभाव है । परन्तु अपना अभाव किसी भी अवस्थामें नहीं है और अपनेमें सम्पूर्ण अवस्थाओंका अभाव है‒यह सर्वानुभूत स्वतःसिद्ध बात है । जैसे अभी जाग्रत्‌-अवस्थामें स्वप्न-सुषुप्ति आदि अवस्थाओंका अभाव है, ऐसे ही स्वयंमें जाग्रत्‌-अवस्थाका भी अभाव है । तात्पर्य है कि स्वयंमें कोई भी अवस्था नहीं है । वह अवस्थातीत तत्त्व है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे