।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, बुधवार
रक्षाबन्धन, यज्ञोपवीत-पूजन
सर्वश्रेष्ठ साधन



         भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाले तीन साधन हैं‒
१.   जगतमें भगवान्‌को देखना‒‘यो मां पश्यति सर्वत्र’ (गीता ६/३०)
२.   भगवान्‌में जगत्‌को देखना‒‘सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता ६/३०)
३.   जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखना‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९)

‒इन तीनोंमें शीघ्र भगवत्प्राप्ति करानेवाला सर्वश्रेष्ठ साधन है‒जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखना अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा स्वीकार करना । यह सर्वश्रेष्ठ इसलिये है कि जो भाव (वासुदेवः सर्वम्) पहलेके दो साधनोंके अन्तमें होता है, वह भाव इस (तीसरे) साधनमें आरम्भसे ही रहता है । श्रीमद्भागवतमें आया है‒
अयं हि सर्वसंक्ल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु     मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥
                                                      (११/२९/१९)
        ‘मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें, मन, वाणी तथा शरीरके समस्त बर्ताव (व्यवहार) में मेरी ही भावना की जाय ।’

          उपनिषदोंमें इस बातको समझनेके लिये तीन दृष्टान्त दिये गये हैं‒सोनेका, लोहेका और मिट्टीका । जैसे, सोनेके अनेक गहने होते हैं । उन गहनोंकी अलग-अलग आकृति, नाम, रूप, तौल, उपयोग, मूल्य आदि होते हैं, पर उन सबमें सोना एक ही होता है । सोनेके सिवाय उनमें कुछ नहीं होता । लोहेके अनेक अस्त्र-शस्त्र होते हैं, पर उनमें लोहेके सिवाय कुछ नहीं होता । ऐसे ही मिट्टीके अनेक बर्तन होते हैं, पर उसमें मिट्टीके सिवाय कुछ नहीं होता । अतः जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंको सोनारूपसे देखना है, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंको लोहारूपसे देखना है और मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंको मिट्टीरूपसे देखना है, ऐसे ही परमात्मासे उत्पन्न हुई सृष्टिको परमात्मारूपसे देखना है । अतः यह सब जगत्‌ परमात्माका स्वरूप है‒इस बातको ठीक समझनेके लिये यहाँ विचार किया जाता है ।

        संसारकी जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके मूलमें एक अनुत्पन्न वस्तु है, जिसको मनुष्य बना नहीं सकता । जैसे, हम गेहूँकी कई तरहकी चीजें बना सकते हैं, पर गेहूँका दाना नहीं बना सकते, चनोंकी कई चीजें बना सकते हैं पर चना नहीं बना सकते, आलूकी कई तरहकी चीजें बना सकते हैं, पर आलू नहीं बना सकते । एक मनुष्यशरीरसे कई मनुष्य पैदा हो सकते हैं, पर जिनसे शरीर पैदा होता है, वे रज-वीर्य हम नहीं बना सकते । तात्पर्य है कि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उनकी मूलभूत धातु (बीज) को बड़ा-से-बड़ा वैज्ञानिक भी नहीं बना सकता । उन वस्तुओंमें हम परिवर्तन कर सकते हैं, दोको परस्पर मिला सकते हैं । पेड़-पौधोंकी कलम करके दूसरा फल लगा सकते हैं, उसमें विकृति पैदा कर सकते हैं, पर उसके मूल तत्त्वको नहीं बना सकते । कारण कि मूल तत्त्व स्वतःसिद्ध है । वह मनुष्यका बनाया हुआ नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌का बनाया हुआ है* । वे भगवान्‌ सम्पूर्ण संसारके आदि बीज हैं ।

    (शेष आगेके बोगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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                                                       * मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
       सम्भवः   सर्वभूतानां    ततो भवति  भारत ॥ 
                                                          (गीता १४/३)
          ‘हे भारत ! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ (बीज) का स्थापन करता हूँ । उससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी (समष्टि ब्रह्माण्डकी) उत्पत्ति होती है ।’

सर्वयोनिषु कौन्तेय  मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
  तासां ब्रह्म महद्योनिरहं    बीजप्रदः  पिता ॥  
                                                (गीता १४/४)
 
          ‘हे कौन्तेय ! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सब (व्यष्टि शरीरोंकी) मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ ।’