।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
सर्वश्रेष्ठ साधन


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌ कहते हैं‒
यच्चापि सर्वभूतानां           बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥
                                                        (गीता १०/३९)
         ‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ । कारण कि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात्‌ चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’

         सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है, पर भगवान्‌ पैदा नहीं होते । इसलिये भगवान्‌ने अपनेको ‘सनातन बीज’ कहा है‒
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ॥
                                                     (गीता ७/१०)
        सांसारिक बीज तो वृक्षको पैदा करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर भगवान्‌ अनन्त सृष्टियोंको पैदा करके भी स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं । इसलिये भगवान्‌ने अपनेको ‘अव्यय बीज’ कहा है‒
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
                                                     (गीता ९/१८)
        तात्पर्य है कि भगवान्‌ सम्पूर्ण जगत्‌के आदिमें भी रहते है और अन्तमें भी रहते हैं । जो आदि और अन्तमें रहता है, वही मध्य (वर्तमान) में भी होता है‒यह सिद्धान्त है । जैसे, अनेक तरहकी चीजें मिट्टीसे पैदा होती हैं, मिट्टीमें ही रहती हैं और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाती हैं । ऐसे ही संसारमात्रके जितने भी बीज हैं, वे सब भगवान्‌से ही पैदा होते हैं, भगवान्‌में ही रहते हैं और अन्तमें भगवान्‌में ही लीन हो जाते हैं, पर भगवान्‌रूप अविनाशी बीज आदि, मध्य और अन्तमें ज्यों-का-त्यों रहता है । अतः वर्तमानमें संसाररूपसे भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है ।

         प्रश्न‒वर्तमानमें तो पंचभूतोंसे बना हुआ जड़ संसार ही प्रत्यक्षरूपसे दीख रहा है, जो कि उत्पत्ति-विनाशशील है । अतः इसको अविनाशी भगवत्स्वरूप कैसे समझें ?

        उत्तर‒बीजसे जितनी चीजें पैदा होती हैं, वे सब बीजरूप ही होती हैं । जैसे, गेहूँसे पैदा होनेवाली खेतीको भी गेहूँ ही कहते हैं । किसानलोग कहते हैं कि गेहूँकी खेती बहुत अच्छी हुई है, देखो, खेतमें गेहूँ खड़े है, गेहूँसे खेत भरा है ! परन्तु कोई शहरमें रहनेवाला व्यापारी हो, वह उसको गेहूँ कैसे मान लेगा ? वह कहेगा कि मैंने बोरे-के-बोरे गेहूँ खरीदा और बेचा है, क्या मैं नहीं जानता कि गेहूँ कैसा होता है ? यह तो घास है, डंठल और पत्ती है, यह गेहूँ नहीं है । परन्तु खेती करनेवाला जानकार आदमी तो यही कहेगा कि यह वह घास नहीं है, जो पशु खाया करते हैं । यह तो गेहूँ है । खेतीको गाय खा जाती है तो कहते हैं कि गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि उसने गेहूँका एक दाना भी नहीं खाया । खेतमें भले ही गेहूँका एक दाना भी न हो, पर यह गेहूँ है‒इसमें सन्देह नहीं है । कारण कि यह पहले भी गेहूँ ही था, अन्तमें भी गेहूँ रहेगा, अतः बीचमें खेतीरूपसे भी गेहूँ ही है । अभी तो यह हरी-हरी घास दीखती है, पर बादमें पकनेपर इससे गेहूँ ही निकलेगा । इसी तरह संसारके पहले भी परमात्मा थे‒‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग ६/२/१), अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे‒‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा १०/३/२५) । अतः बीचमें भी सब कुछ परमात्मा ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९), ‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९/१९)

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे