।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
कज्जली तृतीया
सर्वश्रेष्ठ साधन



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         भगवान्‌ने सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना अपनेमेंसे ही की है, अतः भगवान्‌के सिवाय और कुछ भी नहीं है । जो मनकी कल्पनामें आता है और जो कल्पनामें नहीं आता, वह सब भगवत्स्वरूप ही है । जाग्रत्‌ और स्वप्नमें जो कुछ देखते हैं, वह सब केवल भगवान्‌ ही हैं, सत्‌ भी भगवान्‌ हैं, असत्‌ ही भगवान्‌ हैं और सत्‌-असत्‌से परे भी भगवान्‌ ही हैं‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (गीता ११/३७) । जिनके चरण-चिन्होंको भगवान्‌ने भी अपने हृदयमें धारण किया है, ऐसे पूज्य ब्राह्मण और अत्यन्त नीच श्वपाक (चाण्डाल)‒दोनों ही भगवान्‌के स्वरूप हैं । जैसे सोनेसे बने गणेशजीकी लोग पूजा करते हैं और सोनेसे बने चूहे की पूजा नहीं करते, पर सुनारकी दृष्टिमें दोनोंका एक ही मूल्य (भाव) है, ऐसे ही ब्राह्मण और चाण्डाल, साधु और कसाई, गाय और कुत्ता, हाथी और चींटी, मिट्टीका ढेला और स्वर्ण‒ये सब जाति, गुण, कर्म आदिसे विषम होते हुए भी भक्तकी दृष्टिमें सम अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ तात्पर्य है कि जैसे शरीरके सब अंगोंसे यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी उनमें आत्मबुद्धि एक ही रहती है तथा उन अंगोंकी पीड़ा दूर करने तथा उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टा भी समान ही रहती है, ऐसे ही ‘जैसा देव, तैसी पूजा’ के अनुसार ब्राह्मण और चाण्डाल आदि सबसे शास्त्रमर्यादाके अनुसार यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी भक्तकी भगवद्बुद्धिमें तथा उनका दुःख दूर करने और उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टामें कोई अन्तर नहीं आता ।

       संसारमें जो परिवर्तन दीखता है, वह भगवान्‌की ही एक झलक है, आभा है, स्फूर्ति है, लीला है । संसारी मनुष्य भगवान्‌की उस झलकको देखकर उसमें फँस जाता है । भोगबुद्धिके कारण उसकी दृष्टि परिवर्तनशील संसारमें ही अटक जाती है, भगवान्‌तक नहीं जाती । जब सत्संगके प्रभावसे वह संसारसे विमुख होकर भगवान्‌के सन्मुख हो जाता है, तब भगवान्‌ विशेष कृपा करके उसको अद्वैत भक्ति अर्थात्‌ भगवद्भाव प्रदान करते हैं ।

       सब कुछ भगवान्‌ ही हैं—इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है, कोई भजन नहीं है । इस भगवद्भावसे भगवत्प्राप्ति अत्यन्त सुगम हो जाती है । इसी भगवद्भावका उपदेश देते हुए भगवान्‌ ब्रह्माजीसे कहते हैं‒
अहमेवासमेवाग्रे न्यान्यद् यत् सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्यते सोऽस्म्यहम् ॥
                                                    (श्रीमद्भा २/९/३२)
         ‘सृष्टिके पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टिके उत्पन्न होनेके बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ, जो सत्‌, असत्‌ और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टिके बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जानेपर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ ।’

           गीतामें भी भगवान्‌ने कहा है‒
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
                                                  (१०/२०)
          ‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सृष्टिके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ ।’

        इस प्रकार परमात्मासे पैदा हुई सृष्टिको परमात्माका स्वरूप जानना ज्ञान है । जबतक अपनी और संसारकी अलग सत्ता दीखती है, तबतक अज्ञान है । जैसे, गेहूँके खेतको गेहूँरूपसे देखना ज्ञान है और घासरूपसे देखना अज्ञान है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे