।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
नागपंचमी
सर्वश्रेष्ठ साधन


(गत ब्लॉगसे आगेका)
         जैसे ज्ञानकी दृष्टिसे गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं‒‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (गीता ३/२८), ऐसे ही भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्‌की वस्तु ही भगवान्‌के अर्पित हो रही है । जैसे कोई गंगाजलसे गंगाका पूजन करे, दीपकसे सूर्यका पूजन करे, पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले पुष्पोंसे पृथ्वीका पूजन करे, ऐसे ही भगवान्‌की वस्तुसे भगवान्‌का ही पूजन हो रहा है । वास्तवमें देखा जाय तो पूज्य भी भगवान्‌ हैं, पूजाकी सामग्री भी भगवान्‌ हैं, पूजा भी भगवान्‌ हैं तथा पूजक भी भगवान्‌ हैं ! भगवान्‌ कहते हैं‒
अहं क्रतुरहं यज्ञः  स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥
                                            (गीता ९/१६)
          ‘क्रतु भी मैं हूँ, यज्ञ भी मैं हूँ, स्वधा भी मैं हूँ, औषध भी मैं हूँ. मन्त्र भी मैं हूँ, धृत भी मैं हूँ, अग्नि भी मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ ।’
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव  तेन  गन्तव्यं   ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
                                                     (गीता ४/२४)
        ‘जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है और ऐसे यज्ञको करनेवाले जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है ।’

          इस प्रकार सब जगह भगवान्‌को देखनेसे साधकके राग-द्वेष रहते ही नहीं ! कारण कि जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ?
उमा जे राम चरन  रत     बिगत  काम  मद  क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥
                                                                 (मानस, उत्तर ११२ ख)

          एक मार्मिक बात है कि ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒ऐसा अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत विवेक अथवा भावकी आवश्यकता है । विकेकमें खोज होती है और भावमें स्वीकृति अथवा मान्यता होती है । विवेक और भाव‒दोनों ही अन्तमें तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाते हैं । ज्ञानमार्गमें विवेककी प्रधानता है और भक्तिमार्गमें भावकी प्रधानता है । ज्ञानमार्गमें जानकर मानते हैं और भक्तिमार्गमें मानकर जानते हैं । दोनोंका परिणाम एक ही होता है । तात्पर्य है कि तत्त्वसे जाननेका जो परिणाम होता है, वही परिणाम दृढ़तासे माननेका भी होता है* । भक्तिमार्गमें पहले भक्त ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒ऐसा दृढ़तासे मान लेता है, फिर वह इसको तत्त्वसे जान लेता है अर्थात्‌ उसको ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒ऐसा अनुभव हो जाता है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* मनुष्यमें तीन शक्तियाँ हैं‒करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । जैसे ज्ञानयोगमें जाननेकी शक्तिका उपयोग और भक्तियोगमें माननेकी शक्तिका उपयोग है, ऐसे ही कर्मयोगमें करनेकी शक्तिका उपयोग है । कर्मयोगी मन-वाणी-शरीरसे निष्कामभावपूर्वक प्राणिमात्रकी सेवा करता है अर्थात्‌ संसारसे मिली हुई सामर्थ्य और सामग्रीको संसारकी ही मानकर उसकी सेवामें लगता है । इस प्रकार सेवा करनेसे उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है । अतः जो तत्त्व ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मिलता है, वही तत्त्व कर्मयोगसे भी मिल जाता है ।