।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
चन्द्रषष्ठी, हलषष्ठी (ललहीछठ)
श्रावण सोमवार-व्रत
सर्वश्रेष्ठ साधन

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         ज्ञानयोगीकी दृष्टिसे सभी गुण (सत्त्व-रज-तम) प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं‒‘सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः’ (गीता १४/५) और भक्तियोगकी दृष्टिसे सभी गुण भगवान्‌से उत्पन्न होते हैं‒‘ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि.....’ (गीता ७/१२) । इसलिये ज्ञानयोगीकी दृष्टिमें जो कुछ दीखता है, वह सब प्रकृति है* और जो परिवर्तन हो रहा है, वह गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं । भक्तियोगीकी दृष्टिमें जो कुछ दीखता है, वह सब भगवान्‌का ही रूप है और जो परिवर्तन हो रहा है, वह भगवान्‌की लीला है ।

        जगत्‌ न जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुषकी दृष्टिमें है और न भगवान्‌की दृष्टिमें है । जिसमें जगत्‌की वासना है अर्थात्‌ जिसने जगत्‌को सत्ता और महत्ता दे रखी है, उस जीवकी दृष्टिमें ही जगत्‌ है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) । यह जगत्‌की वासना ही जन्म-मरणरूप बन्धनका बीज है‒
वासना यस्य यत्र स्यात् स तं स्वप्नेषु पश्यति ।
स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं      वासना  तु  वपुर्नृणाम् ॥

        ‘जिस मनुष्यकी जहाँ वासना होती है, उसी वासनाके अनुरूप वह स्वप्न देखता है । स्वप्नके समान ही मरण होता है अर्थात्‌ वासनाके अनुरूप ही अन्तसमयमें चिन्तन होता है और उस चिन्तनके अनुसार ही मनुष्यकी गति होती है ।’

      इस वासनाको ही गीताने गुणसंग कहा है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३/२१) ‘गुणोंका संग ही जीवके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है ।’ यदि वासना न हो तो जीवबुद्धि और जगत्‌-बुद्धिके अभावका तथा भगवान्‌के भावका अनुभव हो जाता है‒‘वासुदेवः सर्वम्’

       ज्ञानमार्गमें साधक विवेकपूर्वक जगत्‌से असंग होता है और भक्तिमार्गमें साधक भाव (श्रद्धा) पूर्वक जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखता है । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यह विवेक (विचार) का विषय नहीं है, प्रत्युत भाव (श्रद्धा) का विषय है । इसलिये ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒यह बात भक्तोंकी वाणीमें अधिक आती है ।

        जबतक सत्‌ और असत्‌, ब्रह्म और जगत्‌‒दोनों रहते हैं, तबतक विवेक रहता है । असत्‌की, जगत्‌की मान्यता मिटनेपर विवेक नहीं रहता, प्रत्युत तत्त्वबोध रहता है । इसलिये विवेकपूर्वक जगत्‌को अलग करके भगवान्‌को देखनेसे जगत्‌की सत्ता रहती है, क्योंकि निषेध उसीका किया जाता है, जिसकी सत्ता मानी है । परन्तु भावपूर्वक जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखनेसे जगत्‌की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती । जबतक साधककी दृष्टिमें भगवान्‌ और जगत्‌ दोनों अलग-अलग रहते हैं, तबतक उसके जीवनमें अखण्ड आनन्द नहीं रहता, प्रत्युत कभी आनन्द आता है, कभी नीरसता आती है । कभी साधकको अपने साधनमें बड़ा लाभ दीखता है, कभी दीखता है कि कुछ लाभ नहीं हुआ ! अतः सर्वश्रेष्ठ साधन यही है कि साधक जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखे अर्थात्‌ जगत्‌-रूपसे भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा देखे ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
   सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
                                                                                                     (गीता १८/४०)
           ‘पृथ्वीमें या स्वर्गमें अथवा देवताओंमें तथा इनके सिवाय और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो ।’

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ (गीता १०/३९)

           ‘मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है ।’