।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
सर्वश्रेष्ठ साधन
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा अनुभव करनेके लिये साधकको दृढ़तासे यह मान लेना चाहिये कि चाहे मेरी समझमें आये या न आये, अनुभवमें आये या न आये, पर बात यही सच्ची है । उसको बड़ी-से-बड़ी अथवा छोटी-से-छोटी जो भी वस्तु दिखायी दे, वह ऐसा माने कि इसमें पूरे-के-पूरे भगवान्‌ हैं । जैसे जलके एक कणमें और समुद्रमें एक ही जल-तत्त्व परिपूर्ण है, ऐसे ही मिट्टीका ढेला हो या पृथ्वी हो, उसमें भगवान्‌ पूरे-के-पूरे हैं‒‘अणोरणीयान्महतो महीयान्’ (कठ १/२/२०, श्वेता ३/२०) । ऐसा मानकर वह हर समय मन-ही-मन सबको नमस्कार करता रहे* । ऐसा करनेसे उसको सब जगह भगवान्‌ दीखने लग जायँगे । एक दृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञानमार्गमें द्वैतभाव है और भक्तिमार्गमें अद्वैतभाव है । कारण कि ज्ञानमार्गमें प्रकृति और पुरुष, सत्‌ और असत्‌, ब्रह्म और जगत्‌, नित्य और अनित्य, जड़ और चेतन, शरीर और शरीरी, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ आदिका भेद है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है । ज्ञानमार्गमें तो ब्रह्म सत्‌ और जगत्‌ असत्‌ है‒‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’, पर भक्तिमार्गमें सत्‌-असत्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९) । इसलिये ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒ऐसा मानकर जो भगवान्‌के शरण हो जाता है अर्थात्‌ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व (मैंपन) मिटाकर भगवान्‌में लीन हो जा है, उसको भगवान्‌ने ‘ज्ञानी’ कहा है‒‘वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ (गीता ७/१९) । ऐसे ज्ञानी भक्तको भगवान्‌ने अपना अत्यन्त प्रिय बताया है‒‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (गीता ७/१७) और उसको अपना ही स्वरूप बताया है‒‘ज्ञानी तात्मैव मे मतम्’ (७/१८)तात्पर्य यह हुआ कि विवेकसे भी भाव तेज है । अतः भावपूर्वक जगत्‌को भगवत्स्वरूप देखना सर्वश्रेष्ठ साधन है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

                                                          ‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः  प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
    नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
                                                 नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते    नमोऽस्तु  ते   सर्वत  एव सर्व ।
     अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
                                                                          (गीता ११/३९-४०)
          ‘आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता हैं) । आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! हे सर्व ! आपके आगेसे नमस्कार हो ! पीछेसे नमस्कार हो ! सब ओरसे ही नमस्कार हो ! हे अनन्तवीर्य ! अमित विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं ।’

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतिंषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् । 
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं    यत्      किञ्च    भूतं   प्रणमेदनन्यः ॥
                                                                                                    (श्रीमद्भा॰ ११/२/४१)
            ‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्‌के ही शरीर हैं‒ऐसा मानकर भक्त सभीको अनन्यभावसे प्रणाम करता है ।’
 
 
विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रिडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद्     दण्डवद्      भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥
                                                              (श्रीमद्भा॰ ११/२९/१६)
            ‘अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’‒ऐसी देहदृष्टिको और लोकलज्जाको छोड़कर कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी लम्बा गिरकर साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम करें ।’
 
 
             गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं‒
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सब के पद कमल   सदा जोरि जुग पानि ॥
                                                                                                  (मानस, बाल॰ ७ ग)
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
                                                                                                           (मानस, बाल॰ ८/१)
 
 
           ‘सीय-राममय’ कहनेका तात्पर्य है कि स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक सब-के-सब प्राणी-पदार्थ सीतारामके ही स्वरूप हैं । चाहे सीताराम कहो, चाहे राधेश्याम कहो, चाहे गौरीशंकर कहो, चाहे लक्ष्मीनारायण कहो, एक ही बात है ।