।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रत (स्मार्त्त) वैष्णव
श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रत कल है
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 
 

     गीतामें भगवान्‌ कहते हैं‒
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
                                                     (७/१९)
     ‘बहुत जन्मोंके अन्तमें ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’
 
      तात्पर्य है कि ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यही असली ज्ञान है । ऐसे ज्ञानवाला महात्मा*भक्त भगवान्‌के शरण हो जाता है अर्थात्‌ अपना अस्तित्व (मैंपन) मिटाकर भगवान्‌में लीन हो जाता है । फिर मैंपन नहीं रहता अर्थात्‌ ज्ञानवाला नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानस्वरूप भगवान्‌ रह जाते हैं, जिसमें मैं-तू-यह-वह चारों ही नहीं हैं ।
 
      संसारका मूल ‘अहम्‌’ (मैंपन) है; अतः किसी भी साधनसे इस अहम्‌को मिटाना है । अहम्‌के मिटनेपर सब साधन एक हो जाते हैं । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इस भावसे ‘अहम्‌’ (मैंपन) सुगमतापूर्वक मिट जाता है । संसार अहम्‌के कारण ही दीखता है अर्थात्‌ अहंभाव (व्यक्तित्व) को स्वीकार करनेसे, अहम्‌के संस्कार रहनेसे ही संसारकी स्वतन्त्र सत्ता मिट जाती है और ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसका अनुभव हो जाता है । अतः जबतक अपनी अथवा संसारकी स्वतन्त्र सत्ता दीखती है, तबतक मुक्ति नहीं हुई, वास्तविक ज्ञान नहीं हुआ ।
 
      सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य ३/१४/१), ‘ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्’ (मुण्डक २/२/११) । एक परमतत्त्व भगवान्‌के सिवाय और कुछ हुआ नहीं, है नहीं और हो सकता ही नहीं। सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसको जाननेवाला भी भगवान्‌ ही हैं; क्योंकि भगवान्‌में मैं-तू, यह-वह नहीं है । जबतक भगवान्‌को जाननेवालेकी सत्ताका भान है, तबतक ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध नहीं हुआ । कारण कि इसके सिद्ध होनेपर स्वयंकी अलग सत्ता, अस्तित्व नहीं रहता, प्रत्युत भगवान्‌-ही-भगवान्‌ रहते हैं । इसलिये कहा है‒
ढूँढा सब जहाँ में,   पाया पता तेरा नहीं ।
जब पता तेरा लगा, अब पता मेरा नहीं ॥
 
      अर्जुन कहते हैं‒
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
                                                    (गीता १०/१५)
      ‘हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं ।’
 
  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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        *‘महात्मा’ शब्दका अर्थ है‒महान्‌ आत्मा अर्थात्‌ अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयतासे रहित आत्मा । जिसमें अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयता है, वह ‘अल्पात्मा’ है । गीतामें भगवान्‌ने ‘महात्मा’ शब्दका प्रयोग केवल भक्तके लिये ही किया है । जो भक्तिमार्गपर चलते हैं, उन साधकोंको भी महात्मा कहा है (९/१३), जो भगवान्‌से अभिन्न हो गये हैं, उनको भी महात्मा कहा है (७/१९) और जो परमसिद्धि (परमप्रेम) को प्राप्त हो चुके हैं, उनको भी महात्मा कहा है (८/१५) ।
                                    दृष्टं श्रुतं भूतभवद् भविष्यत् स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च ।
  विनाच्युताद् वस्तुतरां न वाच्यं स एव सर्वं परमार्थभूतः ॥
                                                                   (श्रीमद्भा १०/४६/४३)

     ‘जो कुछ देखा या सुना जाता है, वह चाहे भूतकालमें हो, वर्तमानमें हो या भविष्यमें, स्थावर हो या जंगम, महान्‌ हो या अल्प, कोई भी वस्तु भगवान्‌से अलग वस्तु कहलानेयोग्य नहीं है । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, वे ही परमार्थसत्य हैं ।’