।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव



(गत ब्लॉगसे आगेका)
      जाग्रत्‌, स्वप्न आदि अवस्थाओंकी तरह बाल, युवा और वृद्ध‒ये तीनों भी अवस्थाएँ हैं । बाल्यावस्थामें युवावस्था-वृद्धावस्थाका अभाव है, युवावस्थामें बाल्यावस्था-वृद्धावस्थाका अभाव है और वृद्धावस्थामें बाल्यावस्था-युवावस्थाका अभाव है । परन्तु अपना अभाव किसी भी अवस्थामें नहीं है और अपनेमें सम्पूर्ण अवस्थाओंका अभाव है । इसको यों भी कह सकते हैं कि जैसे अभी युवावस्थामें बाल्यावस्था-वृद्धावस्थाका अभाव है, ऐसे ही स्वयंमें युवावस्थाका भी अभाव है । जो सम्पूर्ण अवस्थाओंमें रहनेवाला है, उसमें अवस्था कहाँ है ? मणियोंकी मालामें सूतकी तरह सम्पूर्ण अवस्थाओंमें अपनी सत्ता अनुस्यूत है । जैसे सूतमें मणियाँ नहीं हैं, ऐसे ही सत्ता (स्वरूप) में अवस्थाएँ नहीं हैं ।

     जैसे उपर्युक्त अवस्थाएँ शरीरमें होती है, ऐसे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय‒ये तीन अवस्थाएँ संसारमें होती हैं । उत्पत्ति-अवस्थामें स्थिति और प्रलयका अभाव है, स्थिति-अवस्थामें उत्पत्ति और प्रलयका अभाव है तथा प्रलय-अवस्थामें उत्पत्ति और स्थितिका अभाव है । परन्तु परमात्मतत्त्वमें सम्पूर्ण अवस्थाओंका सदा अभाव है ।

      व्यष्टि (शरीर) में स्वयंकी सत्ता है और समष्टि (संसार) में परमात्मतत्त्वकी सत्ता है । व्यष्टि और समष्टिका भेद भी कल्पित है तथा स्वयं और परमात्मतत्त्वका भेद भी कल्पित है ।

    धनवत्ता-निर्धनता, विद्वत्ता-मूर्खता, सरोगता-नीरोगता, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि सब अवस्थाएँ हैं । धनवत्ताके समय निर्धनताका अभाव है और निर्धनताके समय धनवत्ताका अभाव है । परन्तु स्वयंका अभाव दोनों ही अवस्थाओंमें नहीं है और स्वयंमें दोनों ही अवस्थाओंका अभाव है । इसको यों भी कह सकते हैं कि धनको सत्ता और महत्ता देनेसे ही धनवत्ता और निर्धनता है । अगर धनको सत्ता और महत्ता न दें तो न धनवत्ता है, न निर्धनता है ।

        विद्वत्तामें मूर्खताका अभाव है और मूर्खतामें विद्वत्ताका अभाव है, ऐसे ही स्वयंमें मूर्खताका भी अभाव है । विद्याको सत्ता और महत्ता देनेसे ही विद्वत्ता और मूर्खताका भान होता है । अगर विद्याको सत्ता और महत्ता न दें तो न विद्वता हैं, न मूर्खता है । विद्वत्ता और मूर्खता दोनों सापेक्ष अवस्थाएँ हैं । निरपेक्ष सत्ता (स्वयं) में न विद्वत्ता है, न मूर्खता ।

        रोगावस्थामें नीरोगताका अभाव है और निरोगावस्थामें रोगका अभाव है । परन्तु स्वयंका अभाव दोनों ही अवस्थाओंमें नहीं है और स्वयंमें दोनों ही अवस्थाओंका अभाव है । अगर स्वयं दोनों अवस्थाओंमें होता तो अवस्थाके बदलनेपर स्वयं भी बदल जाता और अवस्थाके बदलनेका ज्ञान भी स्वयंको नहीं होता । अगर स्वयंमें दोनों अवस्थाएँ होतीं तो अवस्थाका भेद नहीं होता और अवस्थाका अभाव भी नहीं होता तथा एक ही अवस्था निरन्तर रहती । परन्तु अवस्थाओंके बदलनेका अनुभव तो सबको होता है, पर अपने बदलनेका अनुभव कभी किसीको हुआ नहीं, होगा नहीं, है नहीं और हो सकता नहीं ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे