।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें साधक असत्‌का त्याग करता है तो अहम्‌ (त्याग करनेवाला) रह सकता है । परन्तु भक्तिमार्गमें भगवान्‌ (प्रापणीय वस्तु) की मुख्यता रहनेसे प्रेम बढ़ जाता है और प्रेम बढ़नेसे अहम्‌ स्वतः छूट जाता है । तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें अनुभविता (साधक) की मुख्यता रहती है भक्तिमार्गमें अनुभाव्य (भगवान्‌) की मुख्यता रहती है । इसलिये ज्ञानमार्गमें मैंपन बहुत दूरतक साथ रहता है, जबकि भक्तिमार्गमें मैंपन जल्दी मिट जाता है । जैसे, ‘में देखता हूँ’‒इसमें ‘मैं’ (देखनेवाले) की मुख्यता रहती है और ‘वह दीखता है’‒इसमें ‘वह’ (दीखनेवाले) की मुख्यता रहती है । ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसमें अनुभव, अनुभवी और अनुभविता तीनों ही नहीं रहते ।
 
         विवेकमार्गमें साधक असत्‌का निषेध करता है । निषेध करनेसे असत्‌की सत्ता बनी रहती है । साधक असत्‌के निषेधपर जितना जोर लगता है, उतनी ही असत्‌की सत्ता दृढ़ होती है । अतः असत्‌का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है । उपेक्षा करनेकी अपेक्षा ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒यह भाव और भी बढ़िया है । अतः भक्त न असत्‌को हटाता है, न असत्‌की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्‌-असत्‌ सब कुछ परमात्मा ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९)‒ऐसा मान लेता है ।
 
          ज्ञानमार्गमें ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒इसमें इन्द्रियाँ, विषय और क्रिया तीनों हैं, पर ‘वासुदेवः सर्वम्’ ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒इसमें इन्द्रियाँ, विषय (पदार्थ) और क्रिया तीनों ही नहीं है, प्रत्युत केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ हैं ।
 
         जैसे ज्ञानमार्गमें अत्यन्त वैराग्यकी जरूरत है, ऐसे ही भक्तिमार्गमें दृढ़ मान्यताकी अर्थात्‌ अचल विश्वासकी जरूरत है । जैसे अत्यन्त वैराग्य होनेपर विवेक बोधमें परिणत हो जाता है, ऐसे ही अचल विश्वास होनेपर ‘वासुदेवः सर्वम्’ की मान्यता अनुभवमें परिणत हो जाती है ।
 
           वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो संसारकी मानी हुई सत्ताको हटानेके लिये ही ‘वासुदेवः सर्वम्’ की दृढ़ मान्यता करनेकी आवश्यकता है, अन्यथा ‘वासुदेवः सर्वम्’‒यह मान्यता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है । मान्यता करनेमें मान्यता करनेवाला (अहम्‌) रहता है, जबकि ‘वासुदेवः सर्वम्’ में मान्यता करनेवाला अथवा अनुभव करनेवाला नहीं है, प्रत्युत वासुदेव ही है । कारण कि जबतक अहम्‌ है अर्थात्‌ मान्यता करनेवला अथवा अनुभव करनेवाला है तबतक संसारकी सत्ता है ।
 
           प्रश्न‒‘वासुदेवः सर्वम्’ का भाव विध्यात्मक साधन है या निषेधात्मक ?
 
        उत्तर‒विधि और निषेधकी बात कर्मयोग और ज्ञानयोगमें है । भक्तियोग कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंसे अतीत है । कारण कि कर्मयोग और ज्ञानयोग तो लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग लौकिक निष्ठा नहीं है* । विधि-निषेध संसारमें हैं, भगवान्‌ संसारसे अतीत हैं । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसमें निषिद्ध वस्तु (असत्‌) की सत्ता ही नहीं है । अतः कर्मयोग और ज्ञानयोगमें निषिद्धका त्याग मुख्य है और भक्तियोगमें विश्वासपूर्वक भगवान्‌का आश्रय लेना मुख्य है । भगवान्‌का आश्रय लेना निषिद्धके त्यागसे भी तेज है । आश्रय लेनेका तात्पर्य है‒‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’ ऐसा दृढ़तासे मानकर ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनोंको भगवान्‌में लीन कर देना ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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         *गीतामें आया है‒
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां     कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
                                                        (३/३)
          कर्मयोग ‘क्षर’ (संसार) को लेकर चलता है और ज्ञानयोग ‘अक्षर’ (जीवात्मा) को लेकर चलता है । क्षर और अक्षर दोनों लोकमें हैं‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५/१६)। इसलिये कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं । परन्तु भक्तियोग परमात्माको लेकर चलता है, जो क्षर और अक्षर दोनोंसे विलक्षण है‒‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (गीता १५/१७) । इसलिये भक्तियोग लौकिक निष्ठा नहीं है ।