।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव



(गत ब्लॉगसे आगेका)
        अनुकूलताके समय प्रतिकूलता नहीं है और प्रतिकूलताके समय अनुकूलता नहीं है । परन्तु जिसको इन दोनों अवस्थाओंका ज्ञान है, उस स्वयंमें न अनुकूलता है, न प्रतिकूलता है । अनुकूलताकी अपेक्षा प्रतिकूलता है और प्रतिकूलताकी अपेक्षा अनुकूलता है । निरपेक्ष सत्ता (स्वयं) में न अनुकूलता है, न प्रतिकूलता ।

        बन्धन-अवस्थामें मुक्तिका अभाव है और मुक्त-अवस्थामें बन्धनका अभाव है । जैसे बन्धन-अवस्थामें मुक्ति नहीं है, ऐसे ही स्वयंमें बन्धन-अवस्था नहीं है और जैसे मुक्त-अवस्थामें बन्धन नहीं है, ऐसे ही स्वयंमें मुक्त-अवस्था भी नहीं है । बन्धनकी अपेक्षा मुक्ति है और मुक्तिकी अपेक्षा बन्धन है । अपेक्षा न हो तो स्वयंमें न बन्धन है, न मुक्ति ।

       इसी तरह सुख-दुःख, हर्ष-शोक, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा आदि भी अवस्थाएँ हैं, पर जो इन अवस्थाओंको जाननेवाला है, उसमें ये अवस्थाएँ नहीं हैं ।

        जैसे सूक्ष्मदृष्टिसे देखें तो प्यास और जल‒दोनोंमें कोई फर्क नहीं है । प्यास लगनेपर जलका चिन्तन होता है और जिसका चिन्तन होता है, उसके साथ सम्बन्ध होता है । जब जल पीते हैं, तब प्यास शान्त हो जाती है । अतः प्यास और जल‒दोनोंमें जातीय एकता (सजातीयता) है । जलकी इच्छा ही प्यास है, जलका अभाव प्यास नहीं है । ऐसे ही धनकी इच्छा ही निर्धनता है*, धनका अभाव निर्धनता नहीं है । जैसे, कुत्तेके पास धनका अभाव है, पर वह निर्धन नहीं कहलाता । विरक्त, त्यागी पुरुषको कोई निर्धन नहीं कहता । तात्पर्य है कि जैसे, प्यास और जल एक है, ऐसे ही धनवत्ता और निर्धनता, विद्वत्ता और मूर्खता आदि भी एक हैं, क्योंकि दोनों ही सापेक्ष अवस्थाएँ हैं । अतः पहले मैं निर्धन था, अब मैं धनवान्‌ हूँ; पहले मैं मूर्ख था, अब मैं विद्वान्‌ हूँ‒यह केवल अवस्थाका परिवर्तन है । परन्तु स्वयं अवस्थातीत है । ऐसे ही मनुष्य स्वर्गमें जाता है अथवा ब्रह्मलोकमें जाता है तो यह केवल अवस्थाका परिवर्तन है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिऽनोऽर्जुन’ (गीता ८/१६)

         वास्तवमें प्यासकी जितनी सत्ता है, उतनी जलकी सत्ता नहीं है । कारण कि प्याससे जलके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और प्यास मिटनेसे जलके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होता है । ऐसे ही संसारकी इच्छासे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है । संसारकी प्राप्ति होनेपर संसारकी इच्छा मिटती नहीं, प्रत्युत और बढ़ती है; क्योंकि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । परन्तु परमात्माकी नित्य सत्ता है । तात्पर्य है कि संसारकी प्राप्ति होनेपर भी कमीकी पूर्ति नहीं होती, प्रत्युत कमी बढ़ती है । जैसे, धन मिलनेपर भी धनकी इच्छा बढ़ती है और इच्छा बढ़नेसे धनका अभाव तथा दुःख, सन्ताप, जलन आदि बढ़ते है । परन्तु परमात्माकी प्राप्ति होनेपर कमीका सदाके लिये अत्यन्त अभाव हो जाता है तथा कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता; क्योंकि परमात्मामें कमी है ही नहीं ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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              *‘को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः’ (प्रश्नोत्तरी ५)