।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत
अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव


(गत ब्लॉगसे आगेका)
       अगर हम अवस्थाओंकी सत्ताको स्वीकार करें तो अवस्थाओंकी अनित्यता तथा अनेकता और अपनी नित्य तथा एक सत्ता अनुभवमें आती है और अगर हम अवस्थाओंकी सत्ताको स्वीकार न करें अर्थात्‌ अवस्थाओंकी कल्पना न करें तो एकमात्र अपनी नित्य सत्ता स्वतः ज्यों-की-त्यों अनुभवमें आती है । इसको यों भी कह सकते हैं कि हम अवस्थाओंकी सत्ताको मानें तो उनका अभाव दीखता है; परन्तु अपनी सत्ताको मानें अथवा न मानें, उसका भाव ही दीखता है, अभाव कभी नहीं दीखता । इसलिये गीताने कहा है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (२/१६) अर्थात्‌ असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । जो विद्यमान है, वह तत्त्व है और जो विद्यमान नहीं है, वह अतत्त्व है । तत्त्वमें अतत्त्व नहीं है और अतत्त्वमें तत्त्व नहीं है । परन्तु यह कथन अतत्त्वकी सत्ता माननेसे ही है ।

      अवस्थाओंकी सत्ता स्वीकार करके अपनेको अवस्थामें और अवस्थाको अपनेमें माननेसे संसारमें प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) होती है । उस प्रवृत्ति और निवृत्तिको लेकर अपनेमें ‘कर्तृत्व’ दीखता है और उसके फलको लेकर अपनेमें ‘भोक्तृत्व’ दीखता है । अगर अवस्थाओंकी सत्ता स्वीकार न करें तो अपनेमें अकर्तृत्व और अभोक्तृत्वका अर्थात्‌ वास्तविक एवं निरपेक्ष निर्विकारताका अनुभव स्वतः हो जाता है ।

      जब साधक वर्तमानमें ‘नैव किञ्चित्करोमीति’ (गीता ५/८) ‘मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒इस प्रकार स्वयंको अकर्ता अनुभव करने लगता है, तब उसके सामने एक बड़ी समस्या आती है । जब उसको भूतकालमें किये हुए अच्छे कर्मोंकी याद आती है, तब वह सुखी हो जाता है कि मैंने बहुत अच्छा काम किया, बहुत ठीक किया ! और जब उसको निषिद्ध कर्मोंकी याद आती है, तब वह दुःखी हो जाता है कि मैंने बहुत बुरा काम किया, बहुत गलती की । इस प्रकार भूतकालमें किये गये कर्मोंके संस्कार उसको सुखी-दुःखी करते हैं । इस विषयमें एक मार्मिक बात है ।

       स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें हैं, न भूतकालमें और न भविष्यमें ही होगा । अतः साधकको यह देखना चाहिये कि जैसे वर्तमानमें स्वयं अकर्ता है*, ऐसे ही भूतकालमें भी स्वयं अकर्ता था । कारण कि वर्तमान ही भूतकालमें गया है । स्वरूप सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई कर्म करना बनता ही नहीं । कर्म केवल अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाले अज्ञानी मनुष्यके द्वारा ही होते हैं‒
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
                                                   (गीता ३/२७)
           साधकको भूतकालमें किये हुए कर्मोंकी याद आनेसे जो सुख-दुःख होता है, चिन्ता होती है, यह भी वास्तवमें अहंकारके कारण ही है । वर्तमानमें अहंकारविमूढात्मा होकर अर्थात्‌ अहंकारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर ही साधक सुखी-दुःखी होता है । स्थूलदृष्टिसे भी देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका अभी प्रत्यक्ष अभाव है । अतः भूतकालके अभावको भावरूप देखना, भूतकालकी घटनाओंको सत्ता देकर राजी-नाराज होना बिलकुल गलतीकी बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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                              * शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ (गीता १३/३१)
                 ‘यह आत्मा शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म       प्रारभते  नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं  केवलं   तु  यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न   पश्यति दुर्मतिः ॥
                                                 (गीता १८/१५-१६)
           ‘मनुष्य शरीर, वाणी और मनके द्वारा शास्त्रविहित अथवा शास्त्रविरुद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव) पाँच हेतु होते हैं । परन्तु ऐसे पाँच हेतुओंके होनेपर भी जो उस (कर्मोंके) विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है ।’