।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण अमावस्या, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
अमावस्या
अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव



(गत ब्लॉगसे आगेका)
        सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था ! इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है । परन्तु सत्यका नित्य-निरन्तर भाव है । तात्पर्य है कि सत्तामात्रमें भूत, भविष्य और वर्तमान‒तीनोंका ही सर्वथा अभाव है । सत्ता कालसे अतीत है । उस कालातीत, अवस्थातीत सत्तामें किसी कालविशेष और अवस्थाविशेषको लेकर कर्तृत्व और भोक्तृत्वका आरोप करना अज्ञान है । साधक भूतकालकी स्मृतिमें ऐसा आरोप कर लेता है और सुखी-दुःखी होता है तो यह उसकी बड़ी भारी गलती, असावधानी, भूल है । कारण कि यह अहंकारविमूढात्माकी स्मृति है, सत्ता (तत्त्व) की नहीं ।

          स्वयं सत्तामात्र तथा बोधस्वरूप है । बोधका अनादर करनेसे हमने असत्‌को स्वीकार किया और असत्‌को स्वीकार करनेसे अविवेक हुआ । तात्पर्य है कि बोधसे विमुख होकर हमने असत्‌को सत्ता दी और असत्‌को सत्ता देनेसे विवेकका अनादर हुआ । वास्तवमें बोधका अनादर किया नहीं है, प्रत्युत अनादर है । अगर ऐसा मानें कि हमें हमने बोधका अनादर किया तो इससे सिद्ध होगा कि पहले बोधका आदर था । परन्तु बोध एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४/३५) । अतः बोधका अनादर किया नहीं, प्रत्युत यह अनादि और सान्त है । विवेकका आदर करनेसे, उसको महत्त्व देनेसे अविवेक मिट जाता है और बोधकी स्मृति प्राप्त हो जाती है‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८/७३)

       अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । उस सत्तामें स्थिति ही तत्त्वज्ञान (बोध) है और उस सत्ताके साथ कुछ-न-कुछ मिला लेना ही अज्ञान है । अपनी सत्तामें अहम्‌ नहीं है; परन्तु उसमें अहम्‌को मिला लेनेसे अहम्‌की सत्ता दीखने लगती है और अपने स्वतःसिद्ध सत्ताका अभाव दीखने लगता है अर्थात्‌ उससे विमुखता हो जाती है । अहम्‌के कारण ही जीव है । अगर अहम्‌ न हो तो जीव है ही नहीं, प्रत्युत केवल ब्रह्म ही है । बूँद तो समुद्रमें मिली हुई ही है, केवल मान्यताके कारण वह समुद्रसे अलग दीखती है । वास्तवमें एक जल-तत्त्वकी ही सत्ता है । जल-तत्त्वमें न बूँद है, न समुद्र ।

       स्वयंके अभावका अनुभव किसीको भी कभी नहीं होता, पर संसारके अभावका अनुभव सबको होता है । वास्तवमें अभावरूपका ही अभाव होता है और अनुभवस्वरूपका ही अनुभव होता है । कूड़ा-करकट भी नहीं है, झाड़ू नहीं है और झाड़ूसे कूड़ा-करकट दूर करके मकानको साफ करनेका उद्योग भी नहीं है, केवल मकान ही है ! इसी तरह न संसार है, न करण है और न संसारको हटानेका उद्योग (साधन) है, केवल सत्तामात्र है । सत्ता (‘है’) के सिवाय और सब कुछ माना हुआ है ।

         जिसने अहंकारके साथ तादात्मय माना है, वही जीव ही पाप-पुण्यका कर्ता तथा उनके फलका भोक्ता बनता है । जीव ही सुखी और दुःखी होता है । जीव ही बन्धनमें पड़ता है और मुक्त होता है । परन्तु सत्तास्वरूप स्वयं न कर्ता बनता है, न भोक्ता; न सुखी होता है, न दुःखी; न बँधता है, न मुक्त होता है ।

          अहंकारको सत्ता न दे तो न अहंकार है, न जीव (सत्ता देनेवाला) है । दृश्यको सत्ता न दे तो न दृश्य है, न दृष्टा है । सत्तास्वरूप तत्त्व स्वतः ज्यों-का-त्यों है । उसमें न अनुभविता है, न अनुभव है, न अनुभाव्य ही है; न ज्ञाता है, न ज्ञान है, न ज्ञेय ही है, प्रत्युत त्रिपुटीरहित, अवस्थातीत अनुभवमात्र, ज्ञानमात्र है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

                                                                   ‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे