।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
जया एकादशी-व्रत (सबका)
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं


(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसका अनुभव करनेका साधन क्या है ?
 
        उत्तर‒इसका अनुभव करनेके लिये तीन साधन है‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें साधक कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखता है‒
कर्मण्यकर्म यह पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
                                                     (गीता ४/१८)
 
         ज्ञानयोगमें साधक सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मा और आत्मामें सम्पूर्ण प्राणी देखता है‒
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
                                                     (गीता ६/२९)
 
         भक्तियोगमें साधक संसारमे भगवान्‌ और भगवान्‌में संसार देखता है‒
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
                                                      (गीता ६/३०)
 
      कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेसे कर्म नहीं रहता, प्रत्युत ‘अकर्म’ शेष रहता है । सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मा और आत्मामें सम्पूर्ण प्राणी देखनेसे प्राणी नहीं रहते, प्रत्युत ‘आत्मा’ शेष रहता है । संसारमें भगवान्‌ और भगवान्‌में संसार देखनेसे संसार नहीं रहता, प्रत्युत ‘भगवान्‌’ शेष रहते हैं । अकर्म (निर्लिप्तता), आत्मा और भगवान्‌‒तीनों एक ही हैं । तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों योगोंसे परिणाममें ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसका अनुभव हो जाता है ।
 
       कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल दूसरोंके सुखके लिये ही सब कर्म करता है, इसलिये उसकी सुखासक्ति मिट जाती है । सुखासक्ति मिटनेसे उसमें मैं-पन नहीं रहता । मैं-पन मिटनेसे संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और एक भगवान्‌ ही रह जाते हैं ।
 
          ज्ञानयोगी सत्‌-असत्‌के विवेकको महत्त्व देकर असत्‌का निषेध करता है और सत्‌में स्थित होता है । विवेकके द्वारा सत्‌में स्थिति होनेपर भी संसारकी सत्ता सूक्ष्मरूपसे रहती है; क्योंकि साधन करते समय तेजीका वैराग्य नहीं था । तीव्र वैराग्य न होनेसे अनुभव होनेपर भी रागका थोड़ा अंश अथवा मैं-पन सूक्ष्मरूपसे रहता है । उस सूक्ष्म मैं-पनके रहनेसे ही दर्शनोंमें भेद रहता है और अपना दर्शन, सिद्धान्त, साधन बढ़िया मालूम देता है । यदि तेजीका वैराग्य हो जाय और वास्तविक तत्त्वका साक्षात्कार हो जाय तो यह सूक्ष्म मैं-पन नहीं रहता और ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसका अनुभव हो जाता है ।*
 
        भक्तियोगी सबमें भगवान्‌को और भगवान्‌में सबको देखता है, इसलिये उसकी दृष्टिमें न मैं-मेरा रहता है, न तू-तेरा रहता है, न यह-इसका रहता है और न वह-उसका रहता है, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहते हैं । साधारण रीतिसे मैं हूँ, जगत्‌ है और भगवान्‌ हैं‒यह भाव रहता है, पर भक्तमें केवल भगवद्भाव ही रहता है । इसलिये उसमें मैं-पन सुगमतासे नष्ट हो जाता है और ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसका अनुभव हो जाता है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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           * विवेकमार्गमें यदि साधक पहलेसे ही इस बातको समझ ले कि वास्तवमें असत्‌की सत्ता है ही नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २/१६)तो बुद्धिमें बैठी हुई असत्‌की सत्ता बहुत सुगमतासे हट जायगी ।
 
        भक्तिमार्गमें यदि मैं-पन रहता भी है तो ‘मैं भगवान्‌का हूँ’‒ऐसा भाव रहनेसे वह मैं-पन बाधक नहीं होता‒‘अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥’ (मानस ३/११/११)। तात्पर्य है कि भक्तका मैं-पन भगवान्‌के आश्रित रहता है, स्वतन्त्र नहीं रहता । स्वतन्त्र रहनेसे ही मैं-पन बाधक होता है ।