(गत
ब्लॉगसे आगेका)
मायाकी
मोहिनी शक्तिसे
ही यह अनुभव होता
है कि धनादि पदार्थोंके
इतने रूपमें प्राप्त
हो जानेपर हम बहुत
सुखी हो जायँगे
। ऐसी आशा और कथन
तो हम सुनते आ रहे
हैं; पर अभीतक
ऐसा संसारी मनुष्य
कोई नहीं मिला,
जो यह कह दे कि हम
पूर्ण सुखी हो
गये हैं । प्रत्युत
यह कहते तो प्रायः
सभी देखे जाते
हैं कि ‘हम तो पहलेसे
भी अधिक दुःखी
हैं ।’ कहा भी है‒
एकस्य दुःखस्य
न यावदन्तं गच्छाम्यहं
पारमिवार्णवस्य
।
तावद् द्वितीयं
समुपस्थितं मे
छिद्रेष्वनर्था
बहुलीभवन्ति
॥
‘जबतक
समुद्रको पार
करनेकी तरह एक
दुःखका अन्त नहीं
होता कि उसी बीचमें
दूसरा दुःख आ धमकता
है; ठीक ही तो है
अभावोंमें तो
अनर्थोंकी बहुलता
होती ही है ।’
एक वस्तुके
अभावका अनुभव
होनेपर उसकी पूर्तिके
लिये चेष्टा करते
हैं, किन्तु प्रायः
उसकी सिद्धि होती
नहीं; कहीं दैवसंयोगसे
हो भी जाती है तो
फिर उसमें कई अन्य
नये-नये अभावोंकी
सृष्टि होने लगती
है, जिनकी पहले
कभी सम्भावना
ही नहीं थी । इसीलिये
श्रीभगवान्ने
कहा है‒
ये हि संस्पर्शजा
भोगा दुःखयोनय
एव ते ।
आद्यन्तवन्तः
कौन्तेय न तेषु रमते
बुधः ॥
(गीता ५/२२)
‘विषय
और इन्द्रियोंके
सम्बन्धसे होनेवाले
जितने भी सांसारिक
सुख हैं, सब-के-सब
ही दुःखयोनि यानी
दुःखोंकी प्रसवभूमि‒दुःखोंको
पैदा करनेवाली
खानें हैं, एवं
उत्पत्ति और विनाशसे
संयुक्त हैं ।
अतः हे अर्जुन
! बुद्धिमान्
विवेकी मनुष्य
उनमें नहीं रमता
।’
विचार करके
देखा जाय तो किसी
भी सांसारिक प्राणीको
अपनी परिस्थितिमें
पूर्ण सुख और सन्तोष
नहीं है; क्योंकि
वह उससे भी और अधिक
सुखके लिये सदा
लालायित तथा प्रयत्नशील
रहता है । शास्त्रमें
बतलाया है‒
न सुखं देवराजस्य न सुखं चक्रवर्तिनः
।
यत् सुखं वितरागस्य
मुनेरेकान्तशीलिनः
॥
किसी राजस्थानी
कविने बड़ा ही सुन्दर
कहा है‒
न सुख काजी
पण्डिताँ न सुख
भूप भयाँ ।
सुख सहजाँ
ही आवसी तृष्णा-रोग
गयाँ ॥
तीसरी बात
कहते हैं कि ‘इमं लोकं प्राप्य’ । यहाँ ‘इमं
लोकम्’ इन पदोंसे
संकेत है मनुष्य-शरीरकी
ओर; भगवान् कहते
हैं कि इस मानव-शरीरको
प्राप्त करके
तो मेरा भजन ही
करना चाहिये, क्योंकि‒
एहि तन कर फल
बिषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई
॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥
अतएव
इस मानव-देहको
प्राप्त करके
तो केवल भगवद्भजन
ही करना चाहिये
क्योंकि दूसरे-दूसरे
काम तो अन्यान्य
शरीरोंमें भी
हो सकते हैं, पर
भजनका अवसर तो
केवल इसी शरीरमें
है । देवादि शरीरोंमें
तो भोगोंकी भरमार
है तथा वहाँ अधिकार
न होनेसे भी भजन
कर नहीं सकते और
नरकोंमें केवल
पापोंके फलोंका
भोग होता है, वहाँ
नया कर्म करनेका
न अधिकार है और
न उनको कर्तव्याकर्तव्यका
ज्ञान ही है । इसी
प्रकार अन्य चौरासी
लाख योनियोंमें
भी कर्तव्याकर्तव्यका
कुछ भी ज्ञान नहीं
रहता तथा साधन-सामग्री
नहीं और अधिकार
भी नहीं । अधिकार,
ज्ञान और सामग्री‒ये
तीनों केवल इस
मानव-शरीरमें
ही हैं । कहीं-कहीं
पशु-पक्षी आदिकोंमें
भी भगवद्भक्ति
आदि देखनेमें
आती है तो वे अपवादरूप
ही हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जीवनका कर्तव्य’
पुस्तकसे
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