।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
वैनायकी श्रीगणेशचतुर्थीव्रत, चन्द्रदर्शन निषिद्ध
भगवद्भजनका स्वरूप
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         मायाकी मोहिनी शक्तिसे ही यह अनुभव होता है कि धनादि पदार्थोंके इतने रूपमें प्राप्त हो जानेपर हम बहुत सुखी हो जायँगे । ऐसी आशा और कथन तो हम सुनते आ रहे हैं; पर अभीतक ऐसा संसारी मनुष्य कोई नहीं मिला, जो यह कह दे कि हम पूर्ण सुखी हो गये हैं । प्रत्युत यह कहते तो प्रायः सभी देखे जाते हैं कि ‘हम तो पहलेसे भी अधिक दुःखी हैं ।’ कहा भी है‒
एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ॥
 
         ‘जबतक समुद्रको पार करनेकी तरह एक दुःखका अन्त नहीं होता कि उसी बीचमें दूसरा दुःख आ धमकता है; ठीक ही तो है अभावोंमें तो अनर्थोंकी बहुलता होती ही है ।’
 
         एक वस्तुके अभावका अनुभव होनेपर उसकी पूर्तिके लिये चेष्टा करते हैं, किन्तु प्रायः उसकी सिद्धि होती नहीं; कहीं दैवसंयोगसे हो भी जाती है तो फिर उसमें कई अन्य नये-नये अभावोंकी सृष्टि होने लगती है, जिनकी पहले कभी सम्भावना ही नहीं थी । इसीलिये श्रीभगवान्‌ने कहा है‒
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय   न तेषु रमते बुधः ॥
                                                                (गीता ५/२२)
          ‘विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे होनेवाले जितने भी सांसारिक सुख हैं, सब-के-सब ही दुःखयोनि यानी दुःखोंकी प्रसवभूमि‒दुःखोंको पैदा करनेवाली खानें हैं, एवं उत्पत्ति और विनाशसे संयुक्त हैं । अतः हे अर्जुन ! बुद्धिमान्‌ विवेकी मनुष्य उनमें नहीं रमता ।’
 
        विचार करके देखा जाय तो किसी भी सांसारिक प्राणीको अपनी परिस्थितिमें पूर्ण सुख और सन्तोष नहीं है; क्योंकि वह उससे भी और अधिक सुखके लिये सदा लालायित तथा प्रयत्नशील रहता है । शास्त्रमें बतलाया है‒
न सुखं देवराजस्य      न सुखं चक्रवर्तिनः ।
यत् सुखं वितरागस्य मुनेरेकान्तशीलिनः ॥
 
          किसी राजस्थानी कविने बड़ा ही सुन्दर कहा है‒
न सुख काजी पण्डिताँ न सुख भूप भयाँ ।
सुख सहजाँ ही आवसी तृष्णा-रोग गयाँ ॥
 
          तीसरी बात कहते हैं कि ‘इमं लोकं प्राप्य’ । यहाँ ‘इमं लोकम्’ इन पदोंसे संकेत है मनुष्य-शरीरकी ओर; भगवान्‌ कहते हैं कि इस मानव-शरीरको प्राप्त करके तो मेरा भजन ही करना चाहिये, क्योंकि‒
एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
स्वर्गउ  स्वल्प     अंत   दुखदाई ॥
नर तनु पाइ   बिषयँ   मन  देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ   बिष   लेहीं ॥
ताहि कबहुँ  भल   कहइ  न कोई ।
गुंजा  ग्रहइ   परस     मनि  खोई ॥
 
          अतएव इस मानव-देहको प्राप्त करके तो केवल भगवद्भजन ही करना चाहिये क्योंकि दूसरे-दूसरे काम तो अन्यान्य शरीरोंमें भी हो सकते हैं, पर भजनका अवसर तो केवल इसी शरीरमें है । देवादि शरीरोंमें तो भोगोंकी भरमार है तथा वहाँ अधिकार न होनेसे भी भजन कर नहीं सकते और नरकोंमें केवल पापोंके फलोंका भोग होता है, वहाँ नया कर्म करनेका न अधिकार है और न उनको कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान ही है । इसी प्रकार अन्य चौरासी लाख योनियोंमें भी कर्तव्याकर्तव्यका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता तथा साधन-सामग्री नहीं और अधिकार भी नहीं । अधिकार, ज्ञान और सामग्री‒ये तीनों केवल इस मानव-शरीरमें ही हैं । कहीं-कहीं पशु-पक्षी आदिकोंमें भी भगवद्भक्ति आदि देखनेमें आती है तो वे अपवादरूप ही हैं ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे