।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
लोलार्क-षष्ठीव्रत
भगवद्भजनका स्वरूप
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
ऐसे अकारण कृपालुको यह कहकर कि ‘क्या करें, भगवान्‌ने हमें ऐसा ही बना दिया, उन्होंने हमको संसारी बनाकर घरके काम-धंधोंमें फँसा दिया, कैसे भजन करें, भगवान्‌की मरजी ही ऐसी है, वे कराते हैं तभी हम ऐसा करते हैं’‒इत्यादि दोष देना मिथ्या है । तात्पर्य यह कि मनुष्य स्वयं तो उद्योग करता नहीं और दोषारोपण करता है दूसरोंपर तथा आप रहना चाहता है निर्दोष । ऐसे काम कबतक चलेगा‒‘कैसे निबहै रामजी रुई-लपेटी आग ?’
 
         अतः विवेकपूर्वक विचार करके अपनी वास्तविक उन्नतिके लिये कटिबद्ध होकर तत्परतासे खूब उत्साहके साथ लग जाना चाहिये ।
 
          भगवान्‌ने चौथी बात कही है‒‘मां भजस्व’ । मुझको भजो । अब विचारना यह है कि भगवान्‌का स्वरूप क्या है और उसका भजन क्या है । आजतक जैसा देखा, जैसा सुना और पढ़ा तथा उसके अनुसार भगवान्‌का साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण आदि जैसा स्वरूप समझा, वही है भगवान्‌का स्वरूप और इस प्रकार भगवान्‌के स्वरूपको सर्वोपरि तथा परम प्रापणीय समझकर एकमात्र उनके शरण हो जाना ही भजन है । अर्थात्‌ जिह्वासे नामका जप, मनसे उनके स्वरूपका चिन्तन और बुद्धिसे उनका निश्चय करना तथा शरीरसे उनकी आज्ञाओंका पालन करना; एवं सब कुछ उन्हींके समर्पण कर देना और उनके प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहना‒यह है भगवद्भजन ।
 
          अब भगवद्भजनरूप शरणागतिके चारों प्रकारोंका कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है ।
 
        भगवान्‌के स्वरूपका चिन्तन करते हुए उनके परम पावन नामका नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे परम श्रद्धापूर्वक जप करना और उन्हीं भगवान्‌के गुण, प्रभाव, लीला आदिका मनन, चिन्तन, श्रवण और कथन करते रहना एवं चलते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते हर समय भगवान्‌की स्मृति रखना‒यह शरणका पहला प्रकार है ।
 
            दूसरा प्रकार है‒भगवान्‌की आज्ञाओंका पालन करना । इसमें केवल इस बातकी ओर ध्यान देना है कि कहीं मन, इन्द्रियोंके और शरीरके कहनेमें आकर केवल उनकी अनुकूलतामें ही न लग जाय; बल्कि यह विचार बना रहे कि भगवान्‌की आज्ञा क्या है‒और यही विचारकर काम करता रहे । भगवदाज्ञा क्या है ? और वह कैसे प्राप्त हो ? इसका उत्तर यह है कि एक तो श्रीमद्भगवद्गीता-जैसे भगवान्‌के श्रीमुखके वचन हैं ही । दूसरे भगवत्प्राप्त महापुरुषोंके वचन भी भगवदाज्ञा ही हैं; क्योंकि जिस अन्तःकरणमें स्वार्थ और अहंकार नहीं रहा, वहाँ केवल भगवान्‌की आज्ञासे ही स्फुरणा और चेष्टाएँ होती रहती हैं । तीसरे उन महापुरुषोंके आचरण भी हमारे लिये आदर्श हैं; क्योंकि भगवान्‌ने कहा है‒
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
                                             (गीता ३/२१)
 
           ‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसीके अनुसार बर्तने लग जाता है ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे