।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भगवद्भजनका स्वरूप
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
चौथे, साधकके अपने राग-द्वेषरहित अन्तःकरणकी स्फुरणा भी भगवदाज्ञा समझी जा सकती है । पाँचवें, कोई भी मनुष्य अपने स्वभावके अनुकूल ही आज्ञा देता है, अतः उन परम दयालु प्रभुके स्वभावको समझना चाहिये । श्रीभगवान्‌ आज्ञा देंगे तो अपने स्वभावके अनुसार ही तो देंगे, और वे हैं सर्वसुहृद् । इससे जिस कार्यमें अपने स्वार्थका त्याग और जीवमात्रका परम कल्याण हो, जिसमें किसीका भी अहित न हो, वह श्रीभगवान्‌की आज्ञा है । इस प्रकार उनकी आज्ञाका रहस्य समझकर उसके अनुकूल चलनेमें कभी कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये; बल्कि उसीको अपना परम धर्म समझकर उसीके अनुसार चलनेकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये‒‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’ (गीता ३/३५)
 
          तीसरा प्रकार है‒सर्वस्व प्रभुके समर्पण कर देना । वास्तवमें तो सब कुछ है ही भगवान्‌का, क्योंकि न तो हम जन्मके समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायँगे; तथा न यहाँ रहते हुए भी किसी भी वस्तु तथा शरीरादिकोंको हम अपने मनके अनुसार चला ही सकते हैं । इससे यह बात स्पष्ट समझमें आती है कि हमारा कुछ भी नहीं है, सब कुछ केवल भगवान्‌का ही है और उन्हींके अधीन है । फिर भी हमने उन सबमें भ्रमसे जो अपनापन बना रखा है, उसे उठा लेना है ।
त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ।
 
          चौथा प्रकार है‒भगवान्‌के प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्न रहना । उसमें भी अनुकूलतामें तो प्रसन्नता रहती है, प्रतिकूलतामें वैसी नहीं रहती । वास्तवमें तो अनुकूलतामें जो प्रसन्नता रहती है, वह भगवद्‌विधान मानकर होनेवाली प्रसन्नता नहीं है; वह तो मोहके कारण है । भाव यह कि अपने शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणकी अनुकूलताको लेकर जो प्रसनता होती है, वह मोहजनित है । उसे विवेकके द्वारा हटाकर ‘भगवान्‌ने ही यह विधान किया है और यह मेरे लिये परम मंगलमय है’‒इस प्रकार समझनेपर जो प्रसन्नता होगी, वही भगवान्‌के नाते होगी । फिर प्रतिकूलतामें भी दुःखकी बात नहीं रह जायगी । इस प्रकार भगवान्‌का विधान मान लेनेपर अनुकूल-प्रतिकूल सभी अवस्थाओंमें भगवान्‌की स्मृति बढ़ती रहेगी; क्योंकि वह परिस्थिति भगवान्‌की ही बनायी हुई है, यह प्रत्यक्ष अनुभव होनेपर फिर मनुष्य भगवान्‌को कैसे भूल सकेगा । ऐसा हो जाय, तभी यह समझा जा सकता है कि हमने सभी अवस्थाओंको भगवान्‌का विधान समझा है ।
 
          विचारकर देखनेसे मन, इन्द्रियाँ और शरीरकी प्रतिकूल घटनामें एक लाभ और है । अनुकूल घटनासे पुण्य क्षीण होते हैं और प्रतिकूल घटनासे पाप नष्ट होते हैं । तथा पापोंका विनाश ही हमारे लिये हित है एवं पुण्योंका विनाश ही हमारे लिये अहितकर है । दूसरी बात यह है कि प्रतिकूलतामें मनुष्यका विकास होता है, अनुकूलतामें तो उन्नतिकी रूकावट होती है । अतः प्रभु जितनी ही प्रतिकूलता भेजते हैं, उतना ही वे हमारा परम हित कर रहे हैं । बच्चेके जब मैल लग जाता है और माँ उसे धोती है, तब बालकको उसका स्नान कराना बुरा लगता है । वह रोता है, चिल्लाता है, किन्तु माँ उसकी इच्छाकी कोई परवाह न करके उसे साफ कर ही देती है । ऐसे ही पापोंका विनाश करनेमें प्रभु हमारी सलाह न लेकर, हमारे रोने और चिल्लानेकी ओर ध्यान न देकर हमें शुद्ध कर ही देते हैं । और जैसे सुनार जिस सोनेको अपनाना चाहता है, उसको अधिक साफ करता है, वैसे ही प्रभु किसी भक्तको पूर्वपापोंके अनुसार अधिक कष्ट देते हैं, उसे यह समझना चाहिये की अब प्रभु मुझे अपना रहे हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष ही मेरे पापोंका विनाश कर रहे हैं । भगवान्‌ने स्वयं कहा है‒
यस्याहमनुगृह्णामि     हरिष्ये तद्धनं शनैः ।
करोमि बन्धुविच्छेदं स तु दुःखेन जीवति ॥
 
           ‘जिसपर मैं कृपा करता हूँ, धीरे-धीरे उसका समस्त धन हर लेता हूँ तथा उसके बन्धु-बान्धवोंसे वियोग कर देता हूँ, जिससे वह दुःखपूर्वक जीवन धारण करता है ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे