।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
श्रीराधाष्टमी, महर्षि दधिची-जयन्ती
भगवद्भजनका स्वरूप
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक बात और विचारनेकी है, भगवान्‌ जब हमारे मनकी सुन लेते हैं अर्थात्‌ हमारे अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं, तब हमें संकोच होना चाहिये कि कहीं भगवान्‌ने हमारा मन रखकर हमारे लिहाजसे तो ऐसा नहीं कर दिया है । यदि हमारा मन रखनेके लिये किया है तो यह ठीक नहीं होगा; क्योंकि मनचाहा करते-करते तो बहुत-से जन्म व्यतीत कर दिये, अब तो ऐसा नहीं होना चाहिये । अब तो वही हो, जो भगवान्‌ चाहते हैं । बस, भक्तकी यही चाह रहती है । अतः वह भगवान्‌के विधानमात्रमें परम प्रसन्न रहता है, फिर चाहे वह विधान मन, इन्द्रिय और शरीरके प्रतिकूल हो या अनुकूल । क्योंकि केवल प्रभुका विधान मानकर चलनेपर तो अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनोंमें परम मंगल-ही-मंगल भरा है । अतः वह अपना मनोरथ भगवान्‌से अलग नहीं रखता, भगवान्‌की चाहमें ही अपनी चाहको मिला देता है ।
 
       इस प्रकार भगवान्‌का चिन्तन, भगवदाज्ञापालन, सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर देना और भगवद्‌विधानमें परम प्रसन्न रहना ही भगवद्भजन है ।
 
          अतएव हम सबको चाहिये कि बहुत शीघ्र भगवद्भजनके ही परायण हो जायँ । ऐसे परायण हो जायँ कि भगवान्‌का भजन करते-करते वाणी गद्‌गद हो जाय, चित्त द्रवित हो जाय, मन भगवान्‌में ही लग जाय । फिर भजन करना न पड़े, स्वाभाविक ही होने लग जाय, तभी भजन भजन है, नहीं तो भजनकी नकल है, क्योंकि जो भजन किया जाय, वह नकली होता है और जो स्वतः बनने लग जाय, वह असली होता है । न होनेसे तो भजनकी नकल भी बड़ी अच्छी है, नकलसे भी आगे जाकर असली बन सकता है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
 
           ‘सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन करना चाहिये ।’
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे