।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
महारविवार-व्रत, पद्मा एकादशी-व्रत (सबका)
अहम्‌का नाश तथा तत्त्वका अनुभव
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
        अहम्‌को मिटानेके लिये चाहे ‘हूँ’ की जगह ‘है’ को स्वीकार कर लें, चाहे ‘हूँ’ को ‘है’ के अर्पित कर दें अर्थात्‌ ‘है’-रूपसे सर्वव्यापी परमात्मातत्त्वकी शरण हो जायँ । ऐसा करनेसे अहम्‌ नहीं रहेगा अर्थात्‌ मैं-तू-यह-वह नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल ‘है’ रह जायगा । जैसे, चाकूको खरबूजेपर गिरायें अथवा खरबूजेको चाकूपर गिरायें, कटेगा खरबूजा ही, ऐसे ही ‘है’ को ‘हूँ’ में मिलायें अथवा ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलाये, नाश ‘हूँ’ की परिच्छिन्नताका ही होगा और ‘है’ रह जायगा ।
 
       वास्तवमें देखा जाय तो ‘है’ को ‘हूँ’ में माननेकी अपेक्षा ‘हूँ’ को ‘है’ में मानना श्रेष्ठ है । कारण कि ‘हूँ’ में पहलेसे ही परिच्छिन्नताका संस्कार रहता है, इसलिये ‘है’ को ‘हूँ’ में माननेसे परिच्छिन्नता जल्दी नष्ट नहीं होती । अतः स्वरूपमें स्थित होनेकी अपेक्षा स्वकीय परमात्माका आश्रय लेना श्रेष्ठ है* । जब स्वरूप अहम्‌से विमुख होकर स्वकीय परमात्माकी शरणागति स्वीकार कर लेता है अर्थात्‌ ‘मैं केवल भगवान्‌का हूँ, अन्य किसीका कभी किंचिन्मात्र भी नहीं हूँ‒इस वास्तविकताको स्वीकार कर लेता है, तब वह माया (अपरा प्रकृति) को तर जाता है अर्थात्‌ उसके अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है‒‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७/१४) । तात्पर्य है कि स्वरूपमें स्थित होनेपर तो सूक्ष्म अहम्‌ रह सकता है, पर भगवान्‌का आश्रय लेनेपर अहम्‌ सर्वथा मिट जाता है । कारण कि भगवान्‌ स्वयं शरणागत भक्तके अहम्‌का नाश कर देते हैं । अहम्‌का नाश होनेपर देश, काल, क्रिया आदि तो नहीं रहते, पर ‘है’ (सत्) रह जाता है; ज्ञानी तो नहीं रहता, पर ज्ञान (चित्) रह जाता है; सुख-दुःख तो नहीं रहते, पर आनन्द रह जाता है अर्थात्‌ एक सत्‌-चित्-आनन्दघन तत्त्व ही रह जाता है, जिसको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९) कहा है ।
 
       वह तत्त्व सब देश, काल, क्रिया आदिमें परिपूर्ण है, पर उसमें देश, काल, क्रिया आदि नहीं हैं । उस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये क्रिया करना वास्तवमें तत्त्वसे अलग होना है; क्योंकि क्रिया करनेसे कर्ता रहेगा और तत्त्वकी अप्राप्ति रहेगी । ऐसे ही आत्मचिन्तन करनेसे आत्मबोध नहीं होगा; क्योंकि आत्मचिन्तन करनेसे चिन्तक रहेगा और अनात्माकी सत्ता रहेगी । तत्त्वको अप्राप्त मानेंगे, तभी तो उसकी प्राप्तिके लिये क्रिया करेंगे ! अनात्माकी सत्ता मानेंगे, तभी तो अनात्माका त्याग और आत्माका चिन्तन करेंगे !
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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        * परमात्माके सिवाय कोई स्वकीय (अपना) नहीं हो सकता; क्योंकि वास्तवमें स्वकीय वही हो सकता है, जो हमारेसे अलग न हो सके और हम उससे अलग न हो सकें । जो कभी मिले और कभी अलग हो जाय, वह स्वकीय नहीं हो सकता ।
         जिनमें विवेककी प्रधानता है, ऐसे भक्त अहम्‌का आश्रय छोड़कर अर्थात्‌ संसारका त्याग करके भगवान्‌के आश्रित होते हैं । परन्तु जिनमें विवेककी प्रधानता नहीं है, पर भगवान्‌पर श्रद्धा-विश्वास अधिक है, ऐसे भक्त अहम्‌के साथ (जैसे हैं, वैसे ही) भगवान्‌के आश्रित होते हैं । ऐसे भक्तोंके अहम्‌का नाश भगवान्‌ स्वयं करते हैं‒
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                                                (गीता १०/१०-११)
             ‘उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ।’
           ‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’