।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
श्रीवामनद्वादशी-व्रत
अहम्‌का नाश तथा तत्त्वका अनुभव
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
        तत्त्वको जाननेकी चेष्टा करेंगे तो तत्त्वसे दूर हो जायँगे; क्योंकि तत्त्वको ज्ञेय (जाननेका विषय) बनायेंगे, तभी तो उसको जानना चाहेंगे ! तत्त्व तो सबका ज्ञाता है, ज्ञेय नहीं । सबके ज्ञाताका कोई और ज्ञाता नहीं हो सकता । जैसे, आँखसे सबको देखते हैं, पर आँखसे आँखको नहीं देख सकते; क्योंकि आँखकी देखनेकी शक्ति इन्द्रियका विषय नहीं है । अतः वह तत्त्व स्वयं ही स्वयंका ज्ञाता है‒‘स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम’ (गीता १०/१५)
 
बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥
                                                 (मानस १/११७/३)
 
         प्रकृतिके सम्बन्धके बिना तत्त्वका चिन्तन, मनन आदि नहीं हो सकता । अतः तत्त्वका चिन्तन करेंगे तो चित्त साथमें रहेगा, मनन करेंगे तो मन साथमें रहेगा, निश्चय करेंगे तो बुद्धि साथमें रहेगी, दर्शन करेंगे तो तो दृष्टि साथमें रहेगी, श्रवण करेंगे तो श्रवणेन्द्रिय साथमें रहेगी, कथन करेंगे तो वाणी साथमें रहेगी । ऐसे ही ‘है’ को मानेंगे तो मान्यता तथा माननेवाला रह जायगा और ‘नहीं’ का निषेध करेंगे तो निषेध करनेवाला रह जायगा । कर्तृत्वाभिमानका त्याग करेंगे तो ‘मैं’ कर्ता नहीं हूँ’‒यह सूक्ष्म अहंकार रह जायगा अर्थात्‌ त्याग करनेसे त्यागी (त्याग करनेवाला) रह जायगा । इसलिये न मान्यता करें, न निषेध करें; न ग्रहण करें, न त्याग करें, प्रत्युत जैसे हैं, वैसे रहें अर्थात्‌ ‘है’ में स्थिर होकर बाहर-भीतरसे चुप हो जायँ । चुप होना है‒यह आग्रह (संकल्प) भी न रखें, नहीं तो कर्तृत्व आ जायगा; क्योंकि चुप स्वतःसिद्ध है ।
 
        मैं, तू, यह ,वह‒इन चारोंको छोड़ दें तो एक ‘है’ (सत्तामात्र) रह जाता है । उस ‘है’ में स्थिर (चुप) हो जायँ तथा अपनी ओरसे कुछ भी चिन्तन न करें‒‘आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (गीता ६/२५) । यदि अपने-आप कोई चिन्तन हो जाय तो उससे न राग करें, न द्वेष करें; न राजी हों, न नाराज हों; न अच्छा मानें, न बुरा मानें, प्रत्युत उसकी उपेक्षा कर दें, उससे उदासीन हो जायँ । वास्तवमें वह अपनेमें नहीं है । उससे राग-द्वेष करना द्वन्द्व है । यह द्वन्द्व तत्त्वके अनुभवमें खास बाधा है‒‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३/३४)
 
        इस प्रकार यदि एक-दो सेकण्ड भी चुप (सत्तामात्रमें स्थिर) हो जायँ तो उससे एक शक्ति मिलेगी, जो संयोगकी रुचिका, संसारकी आसक्तिका नाश कर देगी । कारण कि अक्रिय तत्त्वमें अपार शक्ति है । सभी शक्तियाँ अक्रिय तत्त्व (‘है’) से ही प्रकट होती हैं, उसीमें स्थित रहती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं । संसारमें प्रत्येक क्रियाके बाद अक्रियता आती है और उस अक्रियतासे ही पुनः क्रिया करनेकी शक्ति मिलती है । जैसे, बोलते-बोलते कुछ देर चुप हो जायँ तो पुनः बोलनेकी शक्ति आ जाती है । चलते-चलते थककर गिर जायँ तो कुछ देर ठहरनेसे पुनः चलनेकी शक्ति आ जाती है । दिनभर कार्य करते-करते रात्रिमें सो जायँ तो पुनः शरीरमें ताजगी, कार्य करनेकी शक्ति आ जाती है । इस प्रकार प्रत्येक क्रिया, वृत्ति आदिकी सन्धिमें वह अक्रिय तत्त्व झलकता है‒
सब वृत्ति हैं गोपिका, साक्षी कृष्ण स्वरूप ।
सन्धिमें झलकत रहे,    यह है रास अनूप ॥
 
       उस अक्रिय तत्त्वमें चुप हो जायँ तो उस स्वतःसिद्ध तत्त्वका अनुभव हो जायगा । वास्तवमें चुप स्वतः, स्वाभाविक और सहज है । इसमें कोई उद्योग नहीं करना है, प्रत्युत केवल ‘नहीं’ की अस्वीकृति करनी है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे