।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
पूर्णिमा, महालयारम्भ
विविध रूपोंमें भगवान्‌
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
भागवतमें तीन तरहके भक्त बताये गये हैं‒प्राकृत, मध्यम और उत्तम । जो केवल मूर्तिमें ही श्रद्धापूर्वक भगवान्‌की पूजा करता है, भगवान्‌के भक्तों तथा अन्य ज्ञानी, विरक्त सन्त आदिमें श्रद्धा-प्रेम नहीं करता, वह प्राकृत अर्थात्‌ आरम्भिक भक्त है* । जैसे क-ख-ग सीखनेवाला आरम्भिक विद्यार्थी है; क्योंकि उसकी विद्या शुरू हो गयी, ऐसे ही उस भक्तकी भक्ति शुरू हो गयी । जो भगवान्‌से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुखियोंपर कृपा तथा भगवान्‌से द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम भक्त है जो सम्पूर्ण संसारमें समान रूपसे परमात्माको ही देखता है, वह उत्तम भक्त है । उत्तम भक्तकी बातको यदि आरम्भमें ही मान लिया जाय तो कितने लाभकी बात है ! पहले आचार्य होकर फिर क-ख-ग सीखना है ! सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यह मान लें तो हम आचार्य हो गये ! अब नाम-जप करें, कीर्तन करें, सत्संग करें तो बड़ी सुगमतासे भगवत्प्राप्ति हो जायगी ।
 
        जो हमारे मनको सुहाता है, उसमें तो भगवान्‌को देखना सुगम है, पर जो हमारे मनको नहीं सुहाता, मनके विरुद्ध है, उसमें अगर भगवद्भाव करने लग जायँ तो हम बहुत जल्दी ऊँचे भक्त हो जायँगे । अतः अच्छे-मन्दे, भले-बुरे सबमें भगवान्‌को देखना शुरू कर दें‒
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
                                                   (गीता ६/९)
         ‘सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला (भगवान्‌को समानरूपसे देखनेवाला) मनुष्य श्रेष्ठ है ।’
 
         जो हमारेसे वैर-विरोध करनेवाले हैं, हमारी निन्दा-निरादर करनेवाले हैं, उनमें भी भगवान्‌को देखें कि ऊपरसे इनका स्वभाव ऐसा बना हुआ है, पर भीतरसे तो भगवान्‌ ही हैं । वे ऊपरसे अनेक रंगोंके वस्त्र धारण किये हुए हैं, पर भीतरसे (तत्त्वसे) एक भगवान्‌ ही हैं । जैसे, स्नान करते समय शरीरमें साबुन लगाकर दर्पणमें देखते हैं तो शरीर बहुत बुरा, भद्दा दीखता है । कहीं फफोले दीखते हैं, कहीं लकीरें दीखती हैं ! परन्तु भद्दा दीखनेपर भी मनमें दुःख नहीं होता कि कैसी बीमारी हो गयी ! कारण कि भीतरमें यह भाव रहता है कि यह तो ऊपरसे दीखता है, स्नान करते ही साफ हो जायगा । ऐसे ही सभी परमात्माके स्वरूप हैं, पर ऊपरसे (शरीरोंमें) उनका अलग-अलग स्वभाव दीखता है । वास्तवमें ऊपरसे दीखनेवाले भी परमात्माके ही स्वरूप हैं, पर अपने राग-द्वेषके कारण वे अलग-अलग दीखते हैं ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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 *अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
  न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥
                               (श्रीमद्भा॰ ११/२/४७)
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
 प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥
                          (श्रीमद्भा॰ ११/२/४६)
सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः ।
 भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥
                        (श्रीमद्भा॰ ११/२/४५)