।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
प्रतिपदाश्राद्ध
विविध रूपोंमें भगवान्‌
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक ही भगवान्‌ अनेक रूपोंसे हमारे सामने आते हैं‒‘अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे’ । कहीं आग लगी है, कही जल बह रहा है, कहीं विवाह हो रहा है, कहीं मृत्युका शोक मनाया जा रहा है, कहीं विद्वान् लोग आपसमें तत्त्वका विचार कर रहे हैं, कहीं मदिरा पीकर आपसमें लड़ रहे हैं‒ये सब रूप तो अनेक हैं, पर भीतरसे एक भगवान्‌ ही हैं । ऊपरका स्वभाव तो बदलनेवाला है; क्योंकि वह कच्चा है, पर परमात्मतत्त्व बदलनेवाला नहीं है; क्योंकि वह सच्चा है । इसलिये बड़े-बड़े दुष्ट भी महात्मा हो गये ! सन्तलोग बदलनेवालेको नहीं देखते, प्रत्युत न बदलनेवालेको देखते हैं‒
विद्याविनयसम्पन्ने   ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
                                                     (गीता ५/१८)
        ‘ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखते हैं ।’
 
सृष्टिसे पहले भी परमात्मा थे‒‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य ६/२/१) और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे‒‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा १०/३/२५), फिर बीचमें दूसरा कहाँसे आया ? जैसे अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ले, गुलाबजामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेला आदिका साग भी होता है । मीठा भी भगवान्‌का प्रसाद होता है और कड़वा भी भगवान्‌का प्रसाद होता है । ऐसे ही हमारे मनको सुहाये, वह भी भगवान्‌का स्वरूप है और जो नहीं सुहाये, वह भी भगवान्‌का स्वरूप हो । सत्‌ भी भगवान्‌का स्वरूप है और असत्‌ भी भगवान्‌का स्वरूप है । अमृत भी भगवान्‌का स्वरूप है और मृत्यु भी भगवान्‌का स्वरूप है‒
                               ‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९)
 
                               ‘मृत्युः सर्वहरश्चाहम् ’ (गीता १०/३४)
 
          नामदेवजी महाराजके घरमें आग लगी तो लोगोंनें उनको समाचार दिया । घरमें आग लगनेका समाचार सुनकर नामदेवजी प्रसन्नतासे नाचने लगे कि मेरे घरमें मेरे और मालिक (भगवान्‌) के सिवाय और कौन बिना पूछे आ सकता है ? भगवान्‌ ही मेरे घरमें अग्निरूपसे आये हैं और वस्तुओंका भोग लगा रहे हैं । घरसे बाहर कई चीजें पड़ी हुई थीं, उनको भी नामदेवजी उठाकर घरमें भीतर अग्निमें डालने लगे कि महाराज ! इनका भी भोग लगाओ ! फिर रातोंरात भगवान्‌ने नामदेवजीका छप्पर बना दिया; क्योंकि जो जिस वस्तुका भोग लगाता है, उसे वही वस्तु प्रसादरूपसे मिलती है । मीराबाईके पास सिंह भेजा गया तो मीराबाई प्रसन्न हो गयीं कि प्रह्लादजीके भगवान्‌ नरसिंहजी आ गये ! उन्होंने उस सिंहकी आरती की, माला पहनायी । उसको जलका छींटा लगा तो वह वापस चला गया । तात्पर्य है कि भगवान्‌ किसी भी रूपमें आयें, भक्त उनको पहचान लेता है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे