।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
तृतीयाश्राद्ध
अखण्ड साधन
 

बात बड़ी सुन्दर पूछी है । ये जो दो प्रश्र आये हैं‒एक अखण्ड साधन कैसे हो ? दूसरा यह कि साधन, साध्य और साधकका क्या स्वरूप है, इनकी एकता कैसे हो ? ये दोनों मिलकर एक ही प्रश्र है । एक प्रश्र आया कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे है‒यह बात एक नयी-सी मालूम देती है, यह कैसे समझमें आये ? ये दोनों ही प्रश्र एक ही ढंगके है इनका एक ही उत्तर है ।
 
वास्तवमें साधकको जो यह बात समझमें नहीं आ रही कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं‒इसका खास कारण है शरीरके साथ अपनी एकताका भाव दृढ़ है । यह एकताका भाव दृढ़ हो जानेसे ही यह समझमें नहीं आता कि ‘मैं भगवान्‌का हूँ भगवान् मेरे हैं ।’ वास्तवमें शरीरके साथ इसका सम्बन्ध है नहीं, यह केवल माना हुआ है‒‘अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । मान्यता इतनी दृढ़ हो गयी सच्ची प्रतीत होने लगी । ठीक सच्ची प्रतीत होती है शरीरके साथ एकताका दृढ़ निश्चय हो जानेसे । किंतु जब ऐसी दृढ़ भावना हो जाय कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैंतब बात नहीं ठहरती । वास्तवमें शरीरके साथ इसकी एकता नहीं । और थोड़ा-सा विचार करें तो यह प्रत्यक्ष बात हरेकके अनुभवमें आ सकती है कि पहले हमारा इस शरीर और शरीरके सम्बन्धियोंके साथ सम्बन्ध नहीं था । आजसे ९० वर्ष पहले, १०० वर्ष पहले, इतने जो अपने बैठे हैं, इनमेंसे किसीका भी वर्तमान शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं था, फिर इस शरीरके सम्बन्धियोंके साथ कब रहा ? तथा आजसे १०० वर्ष बाद इन शरीरोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा, तब फिर शरीरके सम्बन्धियोंके साथ कैसे रहेगा ? इस विचारसे हरेक भाई-बहनकी समझमें यह बात आ सकती है । दृढ़तासे समझ लें‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा ।’ सिद्धान्त है‒जो आदि-अन्तमें नहीं रहता है, वह वर्तमानमें भी नहीं है और वर्तमानमें भी वही है जो आदि- अन्तमें था । इस शरीर और शरीरके सम्बन्धियोंके साथ सम्बन्ध पहलें नहीं था और अन्तमे नहीं रहेगा, अत: अब भी नहीं है । जब शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है तो किसके साथ सम्बन्ध है ? हमारा सम्बन्ध प्रभुके साथ है । वास्तवमें है ही भगवान्‌के साथ सच्चा सम्बन्ध । शरीर और कुटुम्बियोंके साथ तो सम्बन्ध माना हुआ हैं, किंतु प्रभुके साथ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है ।
 
जो मान्यता होती है । उसमें मूल कारण होता है अनजानपना, और अनजानपना आता नहीं है, अनादि सिद्ध है यानी इसका आना नहीं होता, जाना तो हो सकता है । अभी कोई किसी भाईसे पूछे कि ‘तुम्हें फ्रेंच भाषा आती है ?’ वह कहेगा‒‘नहीं आती ।’ फिर पूछे‒कबसे ? तो यह प्रश्र ही नहीं हो सकता । अनजानपना कबसे है यह प्रश्र नहीं बनता । इसलिये वेदान्तमें अज्ञानको अनादि माना है । अत: अज्ञान-अनजानपना अनादि है । फिर भी आप यह प्रश्र करें कि हम तो इसे जानना ही चाहते हैं‒यह अनजानपना आया कहाँसे ? इसका असली उत्तर तो हो गया, पर फिर भी पूछें तो यह उत्तर है कि ‘यह अनजानपना तभीसे आया, जबसे आपने, जो अपना नहीं है, उसको अपना माना ।’ इसपर प्रश्र है कि जो अपना नहीं है उसको अपना क्यों माना ? इसका एक तो कारण अज्ञान है, अत: यह मान्यता अज्ञानका कार्य है । दूसरी बात यह है कि ‘हमने माना तो था इसके तत्वको जाननेके लिये, पर उसे तो हम भूल गये और उसको अपना मानकर बैठ गये ।’
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे