सम्पूर्ण
देश, काल, क्रिया,
वस्तु, व्यक्ति,
अवस्था, परिस्थिति,
घटना आदिका अभाव
होनेपर भी जो शेष
रहता है, वही तत्त्व
है । उस तत्त्वका
अभाव कभी हुआ नहीं
है, है नहीं, होगा
नहीं और हो सकता
नहीं । उस तत्त्वमें
हमारी स्थिति
स्वतः है । इसलिये
वह तत्त्व हमारेसे
अलग नहीं है और
हम उससे अलग नहीं
हैं । वह हमारेसे
दूर नहीं है और
हम उससे दूर नहीं
हैं । वह हमारेसे
रहित नहीं है और
हम उससे रहित नहीं
हैं । वह हमारा
त्याग नहीं कर
सकता और हम उसका
त्याग नहीं कर
सकते । वही तत्त्व
सबका प्रकाशक,
सबका आधार, सबका
आश्रय, सबका रक्षक,
सबका उत्पादक,
सबका ज्ञाता, प्रेमास्पद,
अन्तरात्मा, आत्मदृक्,
विश्वात्मा आदि
अनेक नामोंसे
कहा जाता है । उस नित्यप्राप्त
तत्त्वका अनुभव
करनेमें कोई भी
मनुष्य असमर्थ,
पराधीन, अनधिकारी
नहीं है । वह तत्त्व
केवल उत्कट अभिलाषामात्रसे
प्राप्त हो जाता
है ।
तत्त्वको
लेकर द्वैत, अद्वैत,
विशिष्ठाद्वैत,
शुद्धाद्वैत,
द्वैताद्वैत
आदि जो दार्शनिक
भेद हैं, उनका आग्रह
ही तत्त्वके अनुभवमें
बाधक हैं* कारण कि तत्त्वमें
कोई भेद नहीं है
। जितने भी दार्शनिक
भेद हैं, वे सब तभीतक
हैं, जबतक अहम्
है । अहम्से परिच्छिन्नता
उत्पन्न होती
है और परिच्छिन्नतासे
भेद उत्पन्न होता
है । अतः जबतक अहम्
रहता है, तबतक भेदका
नाश नहीं होता
। अहम्के मिटनेपर
कोई भेद नहीं रहता,
केवल तत्त्व रह
जाता है ।
अहम् क्या
है‒इसपर विचार
करें । गीतामें
आया है‒‘अहंकार
इतीयं में भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा’
(७/४); ‘महाभूतान्यहंकारो
बुद्धिरव्यक्तमेव
च’ (१३/५) । सांख्यकारिकामें
आया है‒‘प्रकृतेर्महान्
ततोऽहंकारः’ । श्रीमद्भागवतमें
सात्त्विक, राजस
और तामस‒तीन प्रकारके
अहम्का वर्णन
आया है‒‘वैकारिकस्तैजसश्च
तामसश्चेत्यहं
त्रिवृत्’ (११/२४/७) । ये सब-के-सब अहम्
सर्वथा जड़ (प्रकृति)
के वाचक हैं । इसलिये
भगवान्ने अहम्को
इदंतासे कहा है;
जैसे‒‘एतद्
यो वेत्ति’ (१३/१) । तात्पर्य है
कि अहम् प्रकाश्य
है और तत्त्व ज्ञाता
है । प्रकाश्यके
साथ प्रकाशककी
और ज्ञेय साथ ज्ञाताकी
सर्वथा एकता कभी
हो नहीं सकती ।
जीव अहम्के
साथ तादात्मय
करके अपनेको ‘मैं
हूँ’ इस प्रकार
अनुभव करता है† । इसमें ‘मैं’
तो प्रकृतिका
अंश है और ‘हूँ’ चेतनका
अंश है । तात्पर्य
है कि ‘मैं’ की ‘नहीं’
के साथ और ‘हूँ’ की
‘है’ के साथ एकता
है । वास्तवमें
‘मैं’ के साथ सम्बन्ध
होनेसे ही ‘हूँ’
है । अगर ‘मैं’ का
सम्बन्ध छोड़ दें
तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा,
प्रत्युत ‘है’ रहेगा
। वह ‘है’ तत्त्वका
स्वरूप है ।
जब जीव भूलसे
अपनेमें अहम्को
स्वीकार कर लेता
है, तब उसमें जड़ता,
परिच्छिन्नता,
विषमता, अभाव, अशान्ति,
कर्तृत्व, भोक्तृत्व
आदि विकार आ जाते
हैं । अतः अपनेमें
माने हुए अहम्को
मिटानेके लिये
अपनेमें तत्त्व
(‘है’) को स्वीकार
करना है; क्योंकि
तत्त्वमें अहम्
नहीं है । अहम्के
मिटनेपर जड़ता,
परिच्छिन्नता,
विषमता आदि विकारोंका
सर्वथा अभाव हो
जाता है । अपनेमें
तत्त्वको स्वीकार
करना भेद (द्वैतभाव)
का पोषक नहीं है,
प्रत्युत भेदका
नाशक है; क्योंकि
अपनेमें तत्त्वको
स्वीकार करनेसे
अहम् नहीं रहता
। जब अहम् नहीं
रहेगा तो फिर अहम्से
उत्पन्न होनेवाले
भेद और विकार कैसे
रहेंगे ?
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’
पुस्तकसे
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*जिनमें अपने
मतका आग्रह होता
है, वे मतवाले होते
हैं । मतवालेकी
बात यथार्थ नहीं
होती । सन्तोंने
कहा है‒
मतवादी जानै
नहीं, ततवादी
की बात ।
सूरज ऊगा उल्लुवा, गिनै अँधेरी
रात ॥
हरिया तत्त
विचारियै, क्या
मत सेती काम ।
तत्त बसाया
अमरपुर, मत का जमपुर
धाम ॥
हरिया रत्ता
तत्त का, मत का रत्ता नांहि
।
मतका रत्ता
से फिरै, तांह तत पाया
नांहि ॥
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