।। श्रीहरिः ।।
 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
नवमीश्राद्ध, मातृनवमी
अखण्ड साधन
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
साधकका एक जीवन है । इस जीवनके दो विभाग (बँटवारा) कर लेने चाहिये । एक तो असली, दूसरा नकली । यह मान लेना चाहिये कि एक असली है, एक नकली है । जैसे स्वाँग खेलनेवाला जिस स्वाँगको पहनता है उसको नकली मानता है, असली नहीं मानता । और स्वयं जो मैंपन होता है उसको असली मानता है, नकली नहीं । इसी तरह हमलोगोंने जो शरीर धारण किये हैं‒यह हमारा स्वरूप असली नहीं है । यह स्वाँग है और हम स्वाँग धारण करनेवाले हैं‒इनके साथ मैं-मेरापन करनेवाले हैं । अत: हम तो हुए भगवान्‌के और स्वाँग लिया संसारका । आज बात उलटी हो रही है‒हम हैं संसारके और स्वाँग करते हैं भगवद्भजनका । अत: स्वाँग करके जो भजन करते हैं वह भजन दृढ़‒अखण्ड कभी होगा ही नहीं, होगा ही नहीं, होगा ही नहीं । स्वाँग अखण्ड कैसे होगा ? स्वाँग तो खेलके समय रहेगा, बादमे नहीं रहेगा । तो इसका हमें परिवर्तन करना होगा, इसे बदलना होगा कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं ।’ इस शरीरसे पहले भी मैं शरीर नहीं था और शरीर मेरा नहीं था एवं इसके बाद भी यह मैं-मेरा नहीं रहेगा, किंतु यह स्वयं रहेगा । इसलिये इसको भगवान्‌का मानो तो भगवान्‌का है । भगवान्‌का न मानो तो अपना-आप है ।
 
आप जो बालक बने थे वही आज बूढ़े बने हैं । आपका शरीर वह नहीं, संग वह नहीं, गिरोह वह नहीं, वेष वह नहीं, समय वह नहीं, अवस्था और वर्ष भी वह नहीं, फिर भी आप कहें कि मैं वही हूँ‒बड़े भारी आश्चर्यकी बात है ! सबका अनुभव है, परंतु कोई ध्यान नहीं देता । वस्तुत: यह मैं नहीं हूँ, मैं तो मैं हूँ, वह अखण्ड हूँ, क्योंकि मैं जो बालकपनमें था वही आज हूँ । कोई पूछे‒सामग्री आपकी कौन-सी वही है ? बुद्धि विचार, लक्ष्य, उद्देश्य, कोई-सा भी वह नहीं है, किंतु आप वही हैं । शरीर वह नहीं, परिस्थिति वह नहीं, देशकाल वह नहीं, गिरोह वह नहीं, वस्तुएँ वे नहीं, अवस्था वह नहीं, आपका ध्येय वह नहीं, विद्या-विचार वह नहीं । जब ये सब बदल गये तो आपका सम्बन्ध इनसे कैसे ?
 
यह तो सब स्वाँग है । आप इन सबको जाननेवाले अलग है । वह जो जाननेवाले आप हैं, वही भगवान्‌के हैं । यह सब तो संसारकी चीजें हैं । स्वाँग खेलनेवालेको स्वाँग कम्पनीसे मिलता है, पोशाक कम्पनीसे मिलती है और वहाँ जो स्टेज‒रंगमंच होता है, वह भी कम्पनीका ही होता है । उसीके स्वाँगसे उसीके रंगमंचपर उसीकी प्रसन्नताके लिये और दर्शकोंकी प्रसन्नताके लिये स्वाँग खेलते हैं । दर्शकोंकी प्रसन्नता भी मालिककी प्रसन्नताके लिये ही होती है । दर्शक प्रसन्न न हो तो मालिकसे इनाम न मिले । इसी तरह आपने जो स्वाँग धारण किये है, उन स्वाँगोंके अनुसार बढ़िया-से-बढ़िया काम करना है, पर स्वाँग मानकर करना है । इसीका नाम है धर्मका अनुष्ठान ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे