।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
दशमीश्राद्ध, एकादशीव्रत कल है
अखण्ड साधन
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
स्वाँगके अनुसार खेलनेके लिये एक पुस्तक होती है, पुस्तकोंसे यह सिखाया जाता है कि इतने शब्द आप बोलें, इतने वे बोलें । वैसे ही हमारी पुस्तकोंमें लिखा है कि गृहस्थको यह करना चाहिये, पुरुषको ऐसा करना चाहिये, स्त्रीको ऐसा करना चाहिये, पुत्रको ऐसा करना चाहिये । और यह सब स्वाँग करना है केवल जनताकी प्रसन्नताके लिये । सब लोग कहें‒गृहस्थाश्रम बड़ा उपयोगी है । वाह, वाह, वाह’,‒इस प्रकार ठीक तरहसे उसे करना है, पर वाह-वाह लेनेकी भावनासे नहीं करना है । केवल अपनी आसक्ति मिटानेके लिये, स्वाँगके अनुसार प्रभुकी आज्ञाका पालन करनेके लिये; किंतु इसे सच्चा न माने । इसका नाम कर्मयोग है ।
 
इस तरहसे किया जाय तो स्वत: आसक्ति मिटती है और स्वाभाविक ही राग मिटता है । इसीलिये कहा गया है‒धर्म ते बिरति धर्मका अनुष्ठान करनेसे वैराग्य होता ही है । धर्मको छोड़कर आसक्तिसे विषयोंका सेवन करेंगे तो विषय-सेवनसे कभी वैराग्य हो सकता ही नहीं, सम्भव ही नहीं । अत: उद्देश्य वैराग्यका हो और नियम भी वही रहे । स्वाँगके अनुसार कार्य बढ़िया-से-बढ़िया करना है, पर मानना है उसे स्वाँग । स्वाँगमें कमी आ जाय तो गड़बड़ी और स्वाँगको सच्चा माने तो गड़बड़ी । इसलिये पालन करनेमें कमी आवे नहीं और और सच्चा माने नहीं । इससे क्या होगा ? जैसे स्वाँग पहनकर पैसे कमाये जायँगे, वे भी जायँगे आपके घरमें और स्वाँगरहित हो आप काम करेंगे वे पैसे भी जायँगे आपके घरमें । ये दोनों पैसे ही आपके घरमें जायँगे । वैसे ही आप एकान्तमें बैठकर भजन-ध्यान कर रहे हैं तो अब स्वाँग नहीं, अब तो अपने भगवान्‌की उपासना कर रहे हैं और गृहस्थ बनकर काम कर रहे हैं तो यह संसारमें स्वाँग खेल रहे हैं । पर दोनोंका मतलब भजनसे होगा । इससे भगवान्‌के यहाँ ही दोनोंकी भर्ती होगी और भजन अखण्ड होगा । यदि भजन-ध्यान, कीर्तन-सत्संग तो हुआ भगवान्‌का भजन, उधर और व्यवहार‒-व्यापार हुआ हमारा काम इधर तो यह अखण्ड भजन नहीं होगा । सब काम भगवान्‌का हो ।
तदर्थ कर्म कौन्तेय...............॥ (गीता ३ । १ )
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवापस्यसि ॥
                                                        (गीता १२/१०)
 
भगवान्‌के लिये कर्म करते हैं, प्रभुका ही काम करते हैं तो भजन होगा सभी ओर तथा जहाँ काम छूटेगा, भगवान्‌में मन लगेगा । जैसे रुपयोंके लिये व्यापार करता है तो जहा दूकान बंद किया कि चट रुपयोंका चिन्तन होता है, रुपयोंका विचार होता है, रुपयोंकी गिनती होती है । दूकान बंद हो जाती है, बाजार बंद हो जाता है, फिर भी दीपक जलाकर बैठे हैं । क्या करते है ? रोकड़ जोड़ते है । अब रोकड़ क्यों जोड़ते हो ? तो कहता है--व्यापार किसलिये किया था ? जिसके लिये किया था उसीमें वृत्ति लगती है । इसी प्रकार गृहस्थका काम किसलिये किया ? प्रभु-प्राप्तिके लिये । तो जहाँ काम छूटा कि मन प्रभुमें लग जायगा, चट लग जायगा । व्यापार-कार्य आरम्भ करो तो रुपये कैसे पैदा हों‒यह ध्यान रहेगा, चाहे रुपयोंकी याद रहे या न रहे, पर रुपयोंके लिये काम है । अत: रुपयोंकी अखण्ड स्मृति, रुपयोंका ध्येय अखण्ड रहेगा । वैसे ही यदि प्रभुके लिये ही भजन-ध्यान है और प्रभुके लिये ही गृहस्थाश्रमका काम है तो सब कार्योंमें अखण्डपना है । जो यह अखण्डपना पकड़नेवाला है वह साधक होता है, अखण्डपना रखना साधन होता है और उससे जो अखण्डकी प्राप्ति है वह साध्य होती है । फिर आपसे-आप ये सब हो जायँगे ।
 
इस प्रकार हम भगवान्‌के हैयह कैसे समझें और ‘अखण्ड भजन कैसे हो‒इन दोनों प्रश्रोंका उत्तर हो गया !
 
                                                              नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
 
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे