।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शनिवार
द्वितीयाश्राद्ध
विविध रूपोंमें भगवान्‌
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌ चाहे किसी भी रूपमें आयें, उनकी मरजी है । सुन्दर दृश्य हो, पुष्प खिले हों, सुगन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्‌का रूप है और मांस, हड्डियाँ, मैला पड़ा हो, दुर्गन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान्‌का रूप है । भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है । भगवान्‌ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये । वे कोई भी रूप धारण करें, हैं तो भगवान्‌ ही ! रूप तो भगवान्‌का है और क्रिया उनकी लीला है । कोई पाप, अन्याय करता हुआ दीखे तो समझें कि भगवान्‌ कलियुगकी लीला कर रहे हैं । वे जैसा रूप धारण करते हैं, वैसी ही लीला करते हैं । वराह (सूअर) का रूप धारण करके वराहकी तरह लीला करते हैं और मनुष्यका रूप धारण करके मनुष्यकी तरह लीला करते हैं । वे कोई भी रूप धारण करके कैसी ही लीला करें, भक्तकी दृष्टि भगवान्‌को छोड़कर कहीं जाती ही नहीं । जब सब कुछ वे ही हैं, फिर भक्त उनके सिवाय और किसको देखे ? इसलिये भक्त कहता है‒
                                त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
                                त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
 
          ‒इस श्लोकके दो अर्थ होते हैं‒(१) आप ही माता हो, आप ही पिता हो, आप ही बन्धु हो, आप ही सखा हो, आप ही विद्या हो, आप ही धन हो, हे देवदेव ! मेरे सब कुछ आप ही हो । (२) मेरी माता भी आपका स्वरूप है, मेरे पिता भी आपके स्वरूप हैं, मेरे बन्धु भी आपके स्वरूप हैं, मेरे सखा भी आपके स्वरूप हैं, मेरी विद्या भी आपका स्वरूप है, मेरा धन भी आपका स्वरूप है, हे देवदेव ! मेरा सब कुछ आपका ही स्वरूप है ।
 
         अपना कोई एक अत्यन्त प्रिय व्यक्ति मिल जाय तो बड़ा आनन्द आता है । परन्तु जब सब रूपोंमें ही अपने अत्यन्त प्रिय इष्ट भगवान्‌ मिलें तो आनन्दका क्या ठिकाना है ! इसलिये सब रूपोंमें अपने प्यारेको देख-देखकर प्रसन्न होते रहें, मस्त होते रहें । कभी भगवान्‌ सौम्य-रूपसे आते हैं, कभी क्रूर-रूपसे आते हैं, कभी ठण्ड-रूपसे आते हैं, कभी गरमी-रूपसे आते हैं, कभी वायु-रूपसे आते हैं, कभी वर्षा-रूपसे आते हैं, कभी बिजली-रूपसे चमकते हैं, कभी मेघ-रूपसे गर्जना करते हैं । तात्पर्य है कि अनेक रूपोंसे भगवान्‌-ही-भगवान्‌ आते हैं । जहाँ मन जाय, वहीं भगवान्‌ हैं । अब मनको एकाग्र करनेकी तकलीफ क्यों करें ? मनको खुला छोड़ दें । यह दृढ़ विचार कर लें कि मेरा मन जहाँ भी जाय, भगवान्‌में ही जाता है और मेरे मनमें जो भी आये, भगवान्‌ ही आते हैं; क्योंकि सब कुछ एक भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌ कहते हैं‒
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
                                                     (गीता ६/३०)
         ‘जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’
 
         जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ? बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी ! ऐसे ही जब सब रूपोंमें भगवान्‌ ही हैं, तो फिर वे कैसे छिपें, कहाँ छिपें और किसके पीछे छिपें ?
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे