।। श्रीहरिः ।।
 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
कुशोत्पाटिनी अमावस्या
योगः कर्मसु कौशलम्
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
       उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध हुआ कि ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ पदोंका अर्थ ‘कर्मोंमें कुशलता ही योग है’‒ऐसा न मानकर ‘कर्मोंमें योग ही कुशलता है’‒ऐसा ही मानना चाहिये । अब ‘योग’ क्या है‒इसपर विचार किया जाता है ।
 
       गीतामें ‘योग’ शब्दके तीन अर्थ हैं‒(१) समता, जैसे‒‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८); (२) सामर्थ्य, ऐश्वर्य, प्रभाव; जैसे‒‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९/५); और (३) समाधि; जैसे‒‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६/२०) । यद्यपि गीतामें ‘योग’ का अर्थ मुख्यतासे ‘समता’ ही है, तथापि ‘योग’ शब्दके अन्तर्गत तीनों ही अर्थ लेने चाहिये ।
 
        पातंजलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधको ‘योग’ कहा गया है‒‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१/२) । इस योगके परिणामस्वरूप दृष्टाकी स्वरूपमें स्थिति हो जाती है‒‘तदा द्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्’ (१/३) । इस प्रकार पातंजलयोगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया है, उसीको गीता ‘योग’ कहती है* । तात्पर्य यह है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सबम्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिको ‘योग’ कहती है । इस समतामें स्थित होनेपर फिर कभी इससे वियोग अर्थात्‌ व्युत्थान नहीं होता, इसलिये इसको ‘नित्ययोग’ कहते हैं । चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेपर तो ‘निर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समतामें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव होनेपर ‘निर्विकल्प बोध’ होता है । निर्विकल्प बोध अवस्था नहीं है, प्रत्युत सम्पूर्ण अवस्थाओंसे अतीत तथा उनका प्रकाशक एवं सम्पूर्ण योग-साधनोंका फल है । इस प्रकार गीताका योग पातंजलयोगदर्शनके योगसे बहुत विलक्षण है ।
 
        परमात्मा सम हैं‒‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९) । जीव परमात्माका अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७); अतः समरूप परमात्माके साथ जीवका सम्बन्ध अर्थात् योग नित्य है । इस स्वतःसिद्ध नित्ययोगका ही नाम ‘योग’ है । यह नित्ययोग सब देशमें है, सब कालमें है, सब क्रियाओंमें है, सब वस्तुओंमें है, सब व्यक्तियोंमें है, सब अवस्थाओंमें है, सब परिस्थितियोंमें है, सब घटनाओंमें है । तात्पर्य है कि इस नित्ययोगका कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । परन्तु असत्‌ (शरीर) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेसे इस नित्ययोगका अनुभव नहीं होता । दुःखरूप असत्‌के साथ माने हुए संयोगका वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) होते ही इस नित्ययोगका अनुभव हो जाता है‒‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६/२३) । यही गीताका मुख्य योग है और इसी योगका अनुभव करनेके लिये गीताने कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग आदि साधनोंका वर्णन किया है । परन्तु इन साधनोंको योग तभी कहा जायगा, जब असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माके साथ नित्य सम्बन्धका अनुभव होगा ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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       * समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) । ‘समताको ही योग कहा जाता है’ और ‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६/२३)‘जिसमें दुःखोंके संयोगका वियोग है, उसको योग नामसे जानना चाहिये’‒ये दोनों ही भगवान्‌की दृष्टिमें ‘योग’ की परिभाषाएँ हैं ।