।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
हरितालिकाव्रत
भगवद्भजनका स्वरूप
 
 
          श्रीभगवान्‌ कहते हैं‒
‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।’
       ‒इस भगवद्वचनके अनुसार हमें तुरन्त भगवद्भजनमें लग जाना चाहिये । श्रीभगवान्‌ने इस श्लोकार्धमें बतलाया कि ‘अनित्यम् असुखम् इमम् लोकम् प्राप्य माम् भजस्व ।’ अनित्य कहनेका तात्पर्य यह है कि देर न करो, क्या पता है‒दम आया न आया खबर क्या है ?
 
          यदि अभी श्वास बन्द हो जाय तो फिर कुछ भी न हो सकेगा । विचारी हुई बातें सब वैसी-की-वैसी ही रह जायँगी । सब गुड़ गोबर हो जायगा, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, यह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, प्रतिक्षण बड़ी तेजीसे जा रहा है और जा रहा है मृत्युकी ओर, जिसको कोई नहीं चाहता । वही मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है । प्रतिघंटा ९०० श्वास जा रहे हैं २४ घंटोंमें २१६०० श्वास चले जाते हैं । जरा इस ओर ध्यान देना चाहिये । खर्च तो यह हो रहा है और कमाई क्या कर रहे हैं ? किस बातकी प्रसन्नता है ?
छः सौ सहस इकीस दम जावत हैं दिन रात ।
एतो  टोटो  ताहि  घर    काहेकी   कुसलात ॥
 
          दूसरा पद है‒‘असुखम्’ यानि यहाँ इस लोकमें सुख नहीं है । यह लोक सुखरहित है । इतनी ही बात नहीं है, भगवान्‌ तो कहते हैं‒‘दुःखालयमशाश्वतम्’ । दुःखालय है; किन्तु हम तो इसमें ठीक इसके विपरीत सुख ढूँढ़ते हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है । जैसे कोई आदमी विद्यालयमें धोती आदि कपड़े खोजे, औषधालयमें मिठाईका भाव पूछे वैसे ही हम इस दुःखालयमें सुख ढूँढ़ रहे हैं । इस संसारमें सुखकर वस्तुएँ मानी जाती है‒धन, स्त्री, पुत्र, घर और भोग । इन सबमें विचार करके देखें तो वास्तवमें सुख है ही नहीं, आदि-अन्तमें सर्वत्र दुःख-ही-दुःख है ।
 
         यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि हमें वही वस्तु सुख दे सकती है, जिसका हमारे पास अभाव है और हम जिसे चाह रहे हैं । उसके लिये चाहना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही उस वस्तुके मिलनेपर सुख अधिक होगा । अभाव रहते हुए भी यदि उसके अभावका अनुभव नहीं है यानी उसके लिये छटपटाहट नहीं है तो वह वस्तु प्राप्त होकर भी हमें सुखी नहीं बना सकती । अतः धन आदि पदार्थोंसे सुख प्राप्त करनेके लिये पहले धनके अभावका दुःख अत्यावश्यक है । यह तो हुआ वस्तुके होनेसे पहले होनेवाला दुःख । फिर वे धनादि पदार्थ मनोरथके अनुसार प्रायः मिलते नहीं । यह हुआ दूसरा दुःख । मिल भी जायँ तो हमसे दूसरेको अधिक मिल जाते हैं तो वह एक नया दुःख खड़ा हो जाता है, यह हुआ तीसरा दुःख । और मिलनेपर उसके नाशकी आशंका बनी ही रहती है, जो महान्‌ चिन्ताका कारण है । यह हुआ चौथा दुःख । एवं होकर नष्ट हो जानेपर तो बहुत ही कष्ट भोगना पड़ता है । उस समय जो दुःख हुआ पाँचवाँ दुःख । श्रीपतंजलिने कहा है‒
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्ति-
विरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ।
 
         ‘परिणामदुःख, तापदुःख और संस्कारदुःख—ऐसे तीन प्रकारके दुःख सबमें विद्यमान रहनेके कारण और तीनों गुणोंकी वृत्तियोंमें परस्पर विरोध होनेके कारण विवेकीके लिये सब-के-सब (कर्मफल) दुःखरूप ही हैं ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे