(गत
ब्लॉगसे आगेका)
पातंजलयोगदर्शनके
योगका अधिकारी
वह है, जो मूढ़ और
क्षिप्त वृत्तिवाला
नहीं है, प्रत्युत
विक्षिप्त वृत्तिवाला
है । परन्तु भगवान्की
प्राप्ति चाहनेवाले
सब-के-सब मनुष्य
गीताके योगके
अधिकारी है । इतना ही नहीं, जो
मनुष्य भोग और
संग्रहको महत्त्व
न देकर इस योगको
ही महत्त्व देता
है और इसको प्राप्त
करना चाहता है‒ऐसा
योगका जिज्ञासु
भी वेदोंमें वर्णित
सकामकर्मोंका
अतिक्रमण कर जाता
है‒‘जिज्ञासुरपि
योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’
(गीता ६/४४) ।
इस योग-(समता-)
की महिमा भगवान्ने
दूसरे अध्यायके
उन्तालीसवें-चालीसवें
श्लोकोंमें चार
प्रकारसे कही
है‒
(१)
‘कर्मबन्धं
प्रहास्यसि’‒समताके द्वारा
मनुष्य कर्म-बन्धनसे
मुक्त हो जाता
है ।
(२)
‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’‒इसके आरम्भका
भी नाश नहीं होता
।
(३)
‘प्रत्यवायो
न विद्यते’‒इसके अनुष्ठानका
उलटा फल भी नहीं
होता ।
(४)
‘स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते
महतो भयात्’‒इसका थोड़ा-सा
भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप
महान् भयसे रक्षा
कर लेता है ।
यद्यपि पहली
बातके अन्तर्गत
ही शेष तीनों बातें
आ जाती हैं, तथापि
सबमें थोड़ा अन्तर
है, जैसे‒
(१)
भगवान्
पहले सामान्य
रीतिसे कहते हैं
कि समतासे युक्त
मनुष्य कर्मबन्धनसे
छूट जाता है । बन्धनका
कारण गुणोंका
संग अर्थात्
प्रकृतिसे
माना हुआ सम्बन्ध
है‒‘कारणं गुणसंगोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु’
(गीता १३/२१) । समता आनेसे
प्रकृतिका सम्बन्ध
नहीं रहता; अतः
मनुष्य कर्मबन्धनसे
छूट जाता है । जैसे
संसारमें अनेक
शुभाशुभ कर्म
होते रहते हैं,
पर वे कर्म हमें
बाँधते नहीं; क्योंकि
उन कर्मोंसे हमारा
कोई सम्बन्ध नहीं
होता, ऐसे ही समतायुक्त
मनुष्यका अपने
कर्मोंसे कोई
सम्बन्ध नहीं
रहता ।
(२)
समताका केवल आरम्भ
हो जाय अर्थात्
समताको प्राप्त
करनेका उद्देश्य,
जिज्ञासा हो जाय
तो इस आरम्भका
भी कभी नाश नहीं
होता । कारण कि
अविनाशीका उद्दश्य
भी अविनाशी ही
होता है, जबकि नाशवान्का
उद्देश्य भी नाशवान्
ही होता है । नाशवान्का
उद्देश्य नाश
(पतन) करता है, पर
समताका उद्देश्य
कल्याण ही करता
है‒‘जिज्ञासुरपि
योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’
(गीता ६/४४) ।
(३)
समताके अनुष्ठानका
उलटा फल नहीं होता
। सकामभावसे किये
जानेवाले कर्ममें
अगर मन्त्रोच्चारण,
अनुष्ठान-विधि
आदिकी कोई त्रुटि
हो जाय तो उसका
उलटा फल हो जाता
है*परन्तु जितनी
समता अनुष्ठानमें
(जीवनमें) आ गयी
है, उसमें अगर व्यवहार
आदिकी कोई भूल
हो जाय, सावधानीमें
कोई कमी रह जाय
तो उसका उलटा फल
(बन्धन) नहीं होता
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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*ऐसी कथा आती है
कि त्वष्टाने इन्द्रका
वध करनेवाले पुत्रकी
इच्छासे एक यज्ञ
किया । उस यज्ञमें
ऋषिओंने ‘इन्द्रशत्रुं
विवर्धस्य’ इस
मन्त्रके साथ हवन
किया । ‘इन्द्रशत्रु’शब्दमें यदि षष्ठीतत्पुरुष-समास
हो तो इसका अर्थ
होगा ‘इन्द्रस्य
शत्रुः’ (इन्द्रका
शत्रु); और यदि बहुव्रीहि-समास
हो तो इसका अर्थ
होगा‒‘इन्द्रः
शत्रुर्यस्य’ (जिसका
शत्रु इन्द्र है)
। समासमें भेद
होनेसे स्वरमें
भी भेद हो जाता
है । अतः षष्ठीतत्पुरुषसमासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका उच्चारण
अन्योदात्त होगा
अर्थात् अन्तिम
अक्षर ‘त्रु’का उच्चारण उदात्त
स्वरसे होगा; और
बहुव्रीहि-समासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका उच्चारण
आद्योदात्त होगा
अर्थात् प्रथम
अक्षर ‘इ’ का
उच्चारण उदात्त
स्वरसे होगा ।
ऋषियोंका उद्देश्य
तो षष्ठीतत्पुरुष-समासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका अन्त्योदात्त
उच्चारण करना था;
परन्तु उन्होंने
उसका आद्योदात्त
उच्चारण कर दिया
। इस प्रकार (दोनों
समासोंका अर्थ
एक होनेपर भी) स्वरभेद
हो जानेसे मन्त्रोच्चारणका
उलटा फल हो गया,
जिससे इन्द्र ही
त्वष्टाके पुत्र
(वृत्रासुर) का
वध करनेवाला हो
गया । इसलिये कहा
गया है‒
मन्त्रो हीनः
स्वरतो वर्णतो
वा मिथ्याप्रयुक्तो
न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो
यजमानां हिनस्ति
यथेन्द्रशत्रुः
स्वरतोऽपराधात्
॥ (पाणिनीयशिक्षा) |