।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
योगः कर्मसु कौशलम्
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
पातंजलयोगदर्शनके योगका अधिकारी वह है, जो मूढ़ और क्षिप्त वृत्तिवाला नहीं है, प्रत्युत विक्षिप्त वृत्तिवाला है । परन्तु भगवान्‌की प्राप्ति चाहनेवाले सब-के-सब मनुष्य गीताके योगके अधिकारी है । इतना ही नहीं, जो मनुष्य भोग और संग्रहको महत्त्व न देकर इस योगको ही महत्त्व देता है और इसको प्राप्त करना चाहता है‒ऐसा योगका जिज्ञासु भी वेदोंमें वर्णित सकामकर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है‒‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (गीता ६/४४)
 
       इस योग-(समता-) की महिमा भगवान्‌ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें-चालीसवें श्लोकोंमें चार प्रकारसे कही है‒
(१) ‘कर्मबन्धं प्रहास्यसि’‒समताके द्वारा मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।
 
(२) ‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’‒इसके आरम्भका भी नाश नहीं होता ।
 
(३) ‘प्रत्यवायो न विद्यते’‒इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता ।
 
(४) ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’‒इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप महान्‌ भयसे रक्षा कर लेता है ।
 
यद्यपि पहली बातके अन्तर्गत ही शेष तीनों बातें आ जाती हैं, तथापि सबमें थोड़ा अन्तर है, जैसे‒
 
(१)        भगवान्पहले सामान्य रीतिसे कहते हैं कि समतासे युक्त मनुष्य कर्मबन्धनसे छूट जाता है । बन्धनका कारण गुणोंका संग अर्थात्प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध है‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । समता आनेसे प्रकृतिका सम्बन्ध नहीं रहता; अतः मनुष्य कर्मबन्धनसे छूट जाता है । जैसे संसारमें अनेक शुभाशुभ कर्म होते रहते हैं, पर वे कर्म हमें बाँधते नहीं; क्योंकि उन कर्मोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त मनुष्यका अपने कर्मोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता ।
 
(२)        समताका केवल आरम्भ हो जाय अर्थात्‌ समताको प्राप्त करनेका उद्देश्य, जिज्ञासा हो जाय तो इस आरम्भका भी कभी नाश नहीं होता । कारण कि अविनाशीका उद्दश्य भी अविनाशी ही होता है, जबकि नाशवान्‌का उद्देश्य भी नाशवान्‌ ही होता है । नाशवान्‌का उद्देश्य नाश (पतन) करता है, पर समताका उद्देश्य कल्याण ही करता है‒‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (गीता ६/४४)
 
(३)        समताके अनुष्ठानका उलटा फल नहीं होता । सकामभावसे किये जानेवाले कर्ममें अगर मन्त्रोच्चारण, अनुष्ठान-विधि आदिकी कोई त्रुटि हो जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है*परन्तु जितनी समता अनुष्ठानमें (जीवनमें) आ गयी है, उसमें अगर व्यवहार आदिकी कोई भूल हो जाय, सावधानीमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल (बन्धन) नहीं होता ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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             *ऐसी कथा आती है कि त्वष्टाने इन्द्रका वध करनेवाले पुत्रकी इच्छासे एक यज्ञ किया । उस यज्ञमें ऋषिओंने ‘इन्द्रशत्रुं विवर्धस्य’ इस मन्त्रके साथ हवन किया । ‘इन्द्रशत्रु’शब्दमें यदि षष्ठीतत्पुरुष-समास हो तो इसका अर्थ होगा ‘इन्द्रस्य शत्रुः’ (इन्द्रका शत्रु); और यदि बहुव्रीहि-समास हो तो इसका अर्थ होगा‒‘इन्द्रः शत्रुर्यस्य’ (जिसका शत्रु इन्द्र है) । समासमें भेद होनेसे स्वरमें भी भेद हो जाता है । अतः षष्ठीतत्पुरुषसमासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका उच्चारण अन्योदात्त होगा अर्थात्‌ अन्तिम अक्षर ‘त्रु’का उच्चारण उदात्त स्वरसे होगा; और बहुव्रीहि-समासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका उच्चारण आद्योदात्त होगा अर्थात्‌ प्रथम अक्षर ‘इ’ का उच्चारण उदात्त स्वरसे होगा । ऋषियोंका उद्देश्य तो षष्ठीतत्पुरुष-समासवाले‘इन्द्रशत्रु’शब्दका अन्त्योदात्त उच्चारण करना था; परन्तु उन्होंने उसका आद्योदात्त उच्चारण कर दिया । इस प्रकार (दोनों समासोंका अर्थ एक होनेपर भी) स्वरभेद हो जानेसे मन्त्रोच्चारणका उलटा फल हो गया, जिससे इन्द्र ही त्वष्टाके पुत्र (वृत्रासुर) का वध करनेवाला हो गया । इसलिये कहा गया है‒
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा    मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानां हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥
                                                                                (पाणिनीयशिक्षा)