।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शनिवार
योगः कर्मसु कौशलम्
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे, कोई हमारे यहाँ नौकरी करता है और अँधेरेमें लालटेन जलाते समय कभी उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज होते हैं । परन्तु उस समय हमारा मित्र है, हमारेसे कुछ चाहता नहीं, उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज नहीं होते, प्रत्युत कहते हैं कि हमारे हाथसे भी वस्तु टूट जाती है, तुम्हारे हाथसे वस्तु टूट गयी तो चिन्ताकी क्या बात है ? अतः जो सकामभावसे कर्म करता है, उसके कर्मका तो उलटा फल हो सकता है, पर जो किसी प्रकारका फल चाहता ही नहीं, उसके अनुष्ठानका उलटा फल कैसे हो सकता है ?
 
(४) समताका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ा-सा समताका भाव बन जाय तो वह जन्म-मरणरूप महान्‌ भयसे रक्षा कर लेता है अर्थात्‌ कल्याण कर देता है । जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है, ऐसे यह थोड़ी-सी भी समता फल देकर नष्ट नहीं होती, प्रत्युत इसका उपयोग केवल कल्याणमें ही होता है । यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म यदि सकामभावसे किये जायँ तो उनका नाशवान्‌ फल (धन-सम्पत्ति एवं स्वर्गादिकी प्राप्ति) होता है और यदि निष्कामभावसे किये जाय तो उनका अविनाशीफल (मोक्ष) होता है । इस प्रकार यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंके तो दो-दो फल हो सकते हैं, पर समताका एक ही फल‒कल्याण होता है । जैसे कोई मुसाफिर चलते-चलते रास्तेमें रुक जाय अथवा सो जाय तो वह जहाँसे चला था, वहाँ पुनः लौटकर चला नहीं जाता, प्रत्युत जहाँतक वह पहुँच गया, वहाँतकका रास्ता तो कट ही गया । ऐसे ही जितनी समता जीवनमें आ गयी, उसका नाश योगभ्रष्ट होनेपर भी नहीं होता अर्थात्‌ स्वर्गादि लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर अथवा मृत्युलोकमें श्रीमानोंके घरमें सुख भोगनेपर भी उस समताका नाश नहीं होता (गीता ६/४१-४४) ।
उपसंहार‒
 
        समताकी प्राप्तिके लिये बुद्धिकी स्थिरता बहुत आवश्यक है । पातंजलयोगदर्शनमें तो मनकी स्थिरता (वृत्तिनिरोध) को महत्त्व दिया गया है, पर गीता बुद्धिकी स्थिरता (उद्देश्यकी दृढ़ता) को ही महत्त्व देती है (२/५५-६८) । कारण कि कल्याणप्राप्तिमें मनकी स्थिरताका उतना महत्त्व नहीं है, जितना बुद्धिकी स्थिरताका महत्त्व है । मनकी स्थिरतासे लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त न होकर पारमार्थिक सिद्धि (कल्याणप्राप्ति) होती है । कर्मयोगमें बुद्धिकी स्थिरता ही मुख्य है* अगर मनकी स्थिरता होगी तो कर्मयोगी कर्तव्य-कर्म कैसे करेगा ? कारण कि मन स्थिर होनेपर बाहरी क्रियाएँ रुक जाती हैं । भगवान्‌ भी योग (समता) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं‒‘योगस्थः कुरु कर्मणि’ (२/४८) । तात्पर्य है कि कर्मोंका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत योग (समता) का ही महत्त्व है । अतः कर्मोंमें योग ही कुशलता है ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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*व्यवसायात्मिका     बुद्धिरेकेह     कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥

                                                       (गीता २/४१)
          ‘हे कुरुनन्दन ! इस समबुद्धिकी प्राप्तिके विषयमें व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है । अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओंवाली ही होती हैं ।’