।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
चतुर्थीश्राद्ध
अखण्ड साधन
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे भारतीय संस्कृतिके अनुसार द्विजातियोंके लिये यह विधान है कि पहले ब्रह्मचर्याश्रमका पालन करो, फिर गृहस्थ बनो । ब्रह्मचारी दो तरहके होते हैं‒‒१-नैष्ठिक-ब्रह्मचारी, २-उपकुर्वाण । जो ब्रह्मचर्याश्रमसे ब्रह्मचर्याश्रममें ही रहे अथवा सीधे संन्यासाश्रममें चले जायँ‒‒सदाके लिये अखण्ड ब्रह्मचारी बनें, वे नैष्ठिक-ब्रह्मचारी कहलाते है और ब्रह्मचर्याश्रमका यथावत् पालन करके उसकी समाप्ति-स्नान करके गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट हों; फिर क्रमसे वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रममें जायँ, वे कहलाते हैं‒‒उपकुर्वाण ब्रह्मचारी । दो भेद क्यों हुए ? ये दो भेद इसलिये हुए कि मानव-शरीर मिला है परमात्माकी प्राप्तिके लिये और जो परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको संसारका त्याग करना पड़ता है । संसार-त्यागकी बात सुनकर हम डर जाते हैं । पर संसारके त्यागका अर्थ यह नहीं है कि हम यहाँसे भागकर चले जायँ । जंगलमें ही चले गये, तो क्या जंगलमें संसार नहीं है ? और जिस शरीरको लेकर जाते हैं वह शरीर क्या संसार नहीं है ? संसारके त्यागका मतलब है शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण, मन, बुद्घि, प्राण आदि पदार्थोंमें अहंता-ममताका त्याग । यही संसारका त्याग है । परमात्माकी प्राप्ति चाहते हो तो संसारका त्याग करना पड़ेगा अर्थात् सांसारिक वस्तुओंके साथ अहंता-ममता नहीं रख सकोगे । अहंता-ममता रखोगे तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी‒‒यह निश्चित बात है । जब हम त्याग करते है तब हमारे मार्गमें बाधा देनेवाली है भोगोकी रागवृत्ति, संग्रह और सुखकी आसक्ति सांसारिक सुख लेने, भोगोंका सुख लेने, संग्रहका सुख लेनेकी आसक्ति ही त्यागमें बाधक होती है । ब्रह्मचर्याश्रममें ऐसा विचार किया जाय कि इसका त्याग करके परमात्माकी ओर चलना है तो विचारद्वारा, विवेकद्वारा, शास्त्रद्वारा, उपदेशद्वारा हम इनको छोड़ना चाहते है, पर कैसी जबरदस्ती हो रही है कि छूटती नहीं है, किसी तरह छोड़ सकते ही नहीं । तब कहा कि ‘तुम अब गृहस्थाश्रममें जाओ, इसे देखो‒पदार्थ क्या हैं और कैसे हैं ? किन्तु जब हम विचारके द्वारा इनको छोड़नेमें समर्थ हो जाते हैं, तब कहते हैं‒‘तुम नैष्ठिक-ब्रह्मचारी बन जाओ ।’ तो ये दो पथ वहाँसे इसलिये हुए कि अधिकारी दो तरहके हैं । गृहस्थाश्रमका धारण करना किसलिये हुआ ? विचारद्वारा जिस भोगासक्तिका हम नाश न कर सके, उसका ज्ञान करके, उसे जानकर, समझकर, भोगकर उसका तत्व समझमें आ जाय तब उसका त्याग कर दें इसलिये । निष्कर्ष यह कि गृहस्थाश्रमको धारण करना त्यागके लिये होता था, न कि रागके लिये‒सदा फँसनेके लिये । यह राग करना हमारी संस्कृति ही नहीं है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे