।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
द्वादशी श्राद्ध
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
यदि आप ठीक विचार करेंगे तो आपको ज्ञात हो जायगा कि सदा साथ रहनेवाले तो केवल एक वे परम कृपामय परमात्मा ही हैं । अतएव आपको उन्हींके चरणोंकी शरण लेनी चाहिये ।
 
१.    परमात्मामें नित्यसिद्ध अपनापन है केवल जीव भूल गया है
१.    संसारमें अपनापन है ही नहीं केवल जीवने भूलसे मान लिया है
२.    परमात्माका कभी वियोग हो ही नहीं सकता
२.    संसारके साथ कभी संयोग रह ही नहीं सकता
३.    परमात्मा जीवको कभी छोड़ ही नहीं सकते
३.    संसार जीवके साथ कभी रह ही नहीं सकता
४.    परमात्मामें आनन्द-ही-आनन्द है, दुःख है ही नहीं
४.    संसारमें दुःख-ही-दुःख है आनन्द है ही नहीं
 
ध्यान दें ! यह जीव परमात्माका अंश हैममैवांशः (गीता १५ । ७ ) ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।’ ( मानस ) परमात्मा सर्वोत्तम हैं; उनका अंश होनेसे इस जीवको अपनी निम्न स्थिति नहीं सुहाती । यह नीचे नहीं रहना चाहता । सर्वोत्तमताकी ओर इसकी उत्सुकता निरन्तर बनी ही रहती है । यह अपनेको सर्वोच्च पदपर नियुक्त करनेके लिये प्रयत्नशील रहता है । कारण यही है कि यह परमात्माका अंश है और परमात्मा सबसे ऊँचे हैं, इसलिये यह भी ऊपर उठना चाहता है । जिस किसी क्षेत्रमें रहता है, वहाँ ऊपर ही उठना चाहता है ।
 
ऊपर उठनेके लिये दो बातोंकी ओर ध्यान दिया जाय तो बहुत शीघ्र ऊपर उठा जा सकता है । एक तो है-–‘करनाऔर दूसरा है–‘होना, जैसे हम व्यापार करते हैं और उसमें नफा-नुकसान होता है । अतः करनेमें हर समय सावधान रहें, जिससे पतन हो ऐसा कार्य करें ही नहीं । और होनेमें हर समय प्रसन्न रहें । जो कुछ हो रहा है, हमारे पूर्वकृत कर्मोंके फलस्वरूप हो रहा है और वह है हमारे प्रभुका मंगलमय विधान । इस धारणाकी सिद्धि तो तब होगी, जब हमारी दृष्टि हमारे लक्ष्यपर स्थिर बनी रहेगी । ऐसा करनेवालोंकी उन्नति होती ही है, वह ऊपर उठता ही हैयह नियम है । पतनका कारण हैहम करनेमें तो सावधानी नहीं रखते और जो होता है, उसमेंअनुकूलमें प्रसन्न और प्रतिकूलमें अप्रसन्न हो जाते हैं ।
 
करनेमें हर समय सावधान रहें । सावधानका अर्थ यह है कि न करनेयोग्य कामको न करें एवं जो न हो सके, उसकी चिन्ता भी न करें । अर्थात् शास्त्रोंके विरुद्ध, लोक-मर्यादाके विरुद्ध काम तो करें ही नहीं, साथ ही धन, मान, बड़ाई, पद, अधिकार आदिको, जिनकी प्राप्ति हमारे चाहनेपर भी हमारे वशकी बात नहीं है, पानेकी भी चिन्ता न करें । न करनेयोग्य कामका विचार छोड़नेसे एवं जो नहीं हो सकता, उसकी चिन्ता छोड़ देनेसे आवश्यक कामके करनेका बल, योग्यता और उत्साह आ जाता है । गीतामें श्रीभगवान्‌ने अर्जुनसे यही बात इस प्रकार कही हैकर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।’ (२/४७)तुम्हारा कर्ममें अधिकार है फलोंमें कदापि नहीं । अतः मनुष्यको फलासक्तिको त्यागकर कर्म करना चाहिये ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे