।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
भक्तिकी श्रेष्ठता
 

ज्ञान और भक्ति‒दोनों ही संसारका दुःख दूर करनेमें समान हैं; परन्तु दोनोंमें ज्ञानकी अपेक्षा भक्तिकी महिमा अधिक है । ज्ञानमें तो अखण्डरस है, पर भक्तिमें अनन्तरस है । अनन्तरसमें लहरोंवाला, उछालवाला एक बहुत विलक्षण आनन्द है । जैसे संसारमें किसी वस्तुका ज्ञान होता है कि ये रुपये हैं, यह घड़ी है तो यह ज्ञान अज्ञान(अनजानपने)-को मिटाता है, ऐसे आदि ही तत्त्वका ज्ञान अज्ञानको मिटाता है । अज्ञान मिटनेसे दुःख, भय, जन्म-मरणरूप बन्धन‒ये सब मिट जाते हैं । ये दुःख, भय आदि सब अज्ञानसे ही उत्पन्न होते हैं । जैसे रातके अँधेरेमें मनुष्य पहचानवाली जगहपर भी धीरे-धीरे चलता है कि कहीं ठोकर न लग जाय । परन्तु प्रकाश होनेपर उसको ठोकर लगनेका भय नहीं होता और वह दौड़कर भी चला जाता है । ऐसे ही अज्ञानान्धकारमें दुःख, भय, सन्ताप आदि होते हैं और ज्ञान होते ही वे मिट जाते हैं । परन्तु प्रेम ज्ञानसे भी विलक्षण है । जैसे यह घड़ी है‒ऐसा ज्ञान हो गया तो अनजानपना मिट गया । परन्तु घड़ी पानेकी लालसा हो जाय तो घड़ी मिलनेपर एक विशेष रस आता है । ये रुपये हैं‒ऐसा ज्ञान हो गया, पर उनको पानेका लोभ हो जाय कि और मिले, और मिले तो उसमें एक विशेष रस आता है । ऐसे ही भक्तिमें एक विशेष रस आता है कि और अधिक कीर्तन हो, और अधिक पदगान हो, और अधिक भगवच्चर्चा हो । जैसे रुपयोंमें लोभ होता है‒जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई, ऐसे ही भगवान्‌में प्रेम होता है‒दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् लोभ (संसारमें आकर्षण) और प्रेम(भगवान्‌में आकर्षण)‒दोनोंमें बड़ा अन्तर है । लोभमें दुःख बढ़ता है और प्रेममें आनन्द बढ़ता है । लोभमें कामना, आसक्ति बढ़ती है और प्रेममें त्याग उपरति बढ़ती है । संसारमें आकर्षण तो दोषोंके कारण होता है, पर भगवान्‌में आकर्षण निर्दोषताके कारण होता है ।

 
ज्ञान कोई निरर्थक या मामूली चीज नहीं है‒‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ (गीता ४।३८) ‘इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन नहीं है ।’ ज्ञान अज्ञानको मिटा देता है, शान्ति देता है, मुक्ति देता है । परन्तु ज्ञानमें शान्त, अखण्डरस रहता है, जबकि भक्तिमें प्रतिक्षण वर्धमान, अनन्तरस रहता है । वह रस कभी समाप्त नहीं होता, निरन्तर बढ़ता ही रहता है । कारण कि प्रेम होनेपर भी उसमें एक विलक्षण कमी रहती है, जिसको ‘नित्यवियोग’ कहते हैं । उस नित्यवियोगसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है । जैसे कीर्तनमें जब रस आने लगता है, तब ‘और रस लें, और रस लें’‒ऐसा भाव होता है । पहलेवाला रस कम होता है, तभी ‘और रस लें’ यह भाव होता है । अत: पहलेवाले रसका वियोग है और आगे-वाले रसका योग है । प्रेममें यह वियोग और योग नित्य चलते रहते हैं, इसलिये इसको नित्यवियोग और नित्ययोग कहते हैं ।
 
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे