(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञान
होनेपर फिर ज्ञानकी
आवश्यकता नहीं
रहती, पर प्रेम
होनेपर भी प्रेमकी
आवश्यकता रहती
है । कारण कि ज्ञानमें
तो तृप्ति हो जाती
है‒‘आत्मतृप्तश्च
मानव:’ (गीता ३।१७),
पर प्रेममें तृप्ति
नहीं होती । रामायणमें
आया है‒
राम
चरित जे सुनत अघाहीं
।
रस
बिसेष जाना तिन्ह
नाहीं ॥
(मानस, उत्तर० ५३।१)
जो
भगवान्की लीला
सुनकर तृप्त हो
जाते हैं, उनको सुननेमें
रस तो आता है, पर उन्होंने
विशेष रस नहीं
जाना है । विशेष
रस जाननेसे क्या
होता है ?
जिन्ह
के श्रवन समुद्र समाना
।
कथा
तुम्हारि सुभग
सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर
होहिं न पूरे ।
तिन्ह
के हिय तुम्ह कहुँ
गृह रूरे ॥
(मानस, अयोध्या॰ १२८।२-३)
अर्जुन
भगवान्से कहते
हैं कि आपके अमृतमय
वचन सुनते- सुनते
मेरी तृप्ति नहीं
हो रही है‒‘भूय: कथय तृप्तिर्हि
श्रृण्वतो नास्ति
मेऽमृतम्’(गीता
१०।१०) । महाराज
पृथु भगवान्से
वर माँगते हैं
कि आप मेरेको दस
हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपकी
लीलाओंको सुनता
रहूँ‒‘विधत्स्व
कर्णायुतमेष
मे वर:’ (श्रीमद्भा॰ ४।२०।२४) । सुननेपर भी
तृप्ति नहीं होती‒यह
‘नित्यवियोग’ है और सुननेमें
रस आता है‒यह ‘नित्ययोग’ है । प्रेमका
एक ऐसा रस है, जिसमें विलक्षणता,
विचित्रता
आती ही रहती है
। कहाँतक आती है‒इसका
कोई अन्त ही नहीं
है ! ज्ञानमें
तो अपने स्वरूपका
बोध होता है, पर प्रेममें
निरन्तर भगवान्की
तरफ खिंचाव होता
है, भगवान्
प्यारे लगते हैं,
मीठे लगते हैं
। हर समय भगवान्की
कथा सुनते ही रहें,
उनकी चर्चा
होती ही रहे, उनका चिन्तन
होता ही रहे, उनके पद गाते
ही रहें‒यह प्रेमका
विशेष रस है । जैसे
लोभीके भीतर धनकी
लालसा रहती है,
ऐसे ही प्रेमीके
भीतर प्रेमकी
लालसा रहती है
। ज्ञानमें प्रकृतिके
सिवाय कुछ नहीं
है* और
भक्तिमें भगवान्के
सिवाय कुछ नहीं
है† । ज्ञानमार्गमें
तो प्रकृति त्याज्य
होती है, पर भक्तिमार्गमें
त्याज्य वस्तु
कोई है ही नहीं
! ज्ञान (विवेक)-में
सत् और असत् जड़
और चेतन, नित्य
और अनित्य, सार और असार आदि
दो वस्तुएँ रहती
हैं; परन्तु
भक्तिमें एक भगवान्
ही रहते हैं । इसलिये
भगवान्ने ‘सब
कुछ वासुदेव ही
हैं’‒इसका अनुभव
करनेवाले महात्माको
अत्यन्त दुर्लभ
बताया है‒‘वासुदेव: सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभ:’
(गीता
७।११), जबकि
ज्ञानीको भगवान्ने
दुर्लभ नहीं बताया
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒--
*न
तदस्ति पृथिव्यां
वा दिवि देवेषु
वा पुन: ।
सत्त्वं
प्रकृतिजैर्मुक्तं
यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:
॥
(गीता १८।४०)
†यच्चापि
सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन
।
न तदस्ति
विना यत्सान्मया
भूतं चराचरम्
॥
(गीता १०।३९)
|