।। श्रीहरिः ।।



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‑‑आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
श्रीदुर्गाष्टमी-व्रत
भक्तिकी श्रेष्ठता
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञान होनेपर फिर ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रहती, पर प्रेम होनेपर भी प्रेमकी आवश्यकता रहती है । कारण कि ज्ञानमें तो तृप्ति हो जाती है‒‘आत्मतृप्तश्च मानव:’ (गीता ३।१७), पर प्रेममें तृप्ति नहीं होती । रामायणमें आया है‒
राम चरित  जे  सुनत अघाहीं ।
रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
                                    (मानस, उत्तर० ५३।१)
जो भगवान्‌की लीला सुनकर तृप्त हो जाते हैं, उनको सुननेमें रस तो आता है, पर उन्होंने विशेष रस नहीं जाना है । विशेष रस जाननेसे क्या होता है ?
जिन्ह के श्रवन    समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर     होहिं   न  पूरे ।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥
                                                                (मानस, अयोध्या १२८।२-३)
अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं कि आपके अमृतमय वचन सुनते- सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है‒‘भूय: कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्’(गीता १०।१०) । महाराज पृथु भगवान्‌से वर माँगते हैं कि आप मेरेको दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपकी लीलाओंको सुनता रहूँ‒‘विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वर:’ (श्रीमद्भा ४।२०।२४)सुननेपर भी तृप्ति नहीं होती‒यह ‘नित्यवियोग’ है और सुननेमें रस आता है‒यह ‘नित्ययोग’ है । प्रेमका एक ऐसा रस है, जिसमें विलक्षणता, विचित्रता आती ही रहती है । कहाँतक आती है‒इसका कोई अन्त ही नहीं है ! ज्ञानमें तो अपने स्वरूपका बोध होता है, पर प्रेममें निरन्तर भगवान्‌की तरफ खिंचाव होता है, भगवान्‌ प्यारे लगते हैं, मीठे लगते हैं । हर समय भगवान्‌की कथा सुनते ही रहें, उनकी चर्चा होती ही रहे, उनका चिन्तन होता ही रहे, उनके पद गाते ही रहें‒यह प्रेमका विशेष रस है । जैसे लोभीके भीतर धनकी लालसा रहती है, ऐसे ही प्रेमीके भीतर प्रेमकी लालसा रहती है । ज्ञानमें प्रकृतिके सिवाय कुछ नहीं है* और भक्तिमें भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है । ज्ञानमार्गमें तो प्रकृति त्याज्य होती है, पर भक्तिमार्गमें त्याज्य वस्तु कोई है ही नहीं ! ज्ञान (विवेक)-में सत् और असत् जड़ और चेतन, नित्य और अनित्य, सार और असार आदि दो वस्तुएँ रहती हैं; परन्तु भक्तिमें एक भगवान्‌ ही रहते हैं । इसलिये भगवान्‌ने ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ बताया है‒‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:’ (गीता ७।११), जबकि ज्ञानीको भगवान्‌ने दुर्लभ नहीं बताया है ।
 
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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*न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: ।
   सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै: ॥
                                                     (गीता १८।४०)
यच्चापि      सर्वभूतानां    बीजं    तदहमर्जुन ।
   न तदस्ति विना यत्सान्मया भूतं चराचरम् ॥
                                                    (गीता १०।३९)