।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्रीदुर्गानवमी-व्रत, विजयादशमी
भक्तिकी श्रेष्ठता
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
      ज्ञानकी दृष्टिसे भगवान्‌ कहते हैं‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (गीता १३ ।१२) ‘उस परमात्मतत्त्वको न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है ।’ भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्‌ कहते हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९।११) ‘हे अर्जुन ! सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।’ इसलिये भक्त सब जगह भगवान्‌को ही देखता है‒
सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर   रूप   स्वामि भगवंत ॥
                                                                              (मानस, किष्किन्धा३)
सब भगवान्‌ ही हैं‒ऐसा भाव होते-होतै फिर मैं- पन भी मिट जाता है और एक परमात्मा-ही-परमात्मा रह जाते हैं ।
 
तू तू करता तू भया,    मुझमें रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥
 
मैं-तू-यह-वह कुछ नहीं रहता, केवल भगवान्‌ ही रहते हैं । ज्ञानमें भी मैं-तू-यह-वह कुछ नहीं रहता, एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म रह जाता है । परन्तु ज्ञानका आनन्द शान्त, अखण्ड एकरस रहता है । भक्तिका आनन्द बढता रहता है । प्रेमका स्वभाव ही बढ़ना है । जैसे उबलते हुए दूधमें उछाल आता है, ऐसे ही भक्तिके आनन्दमें उछाल आता रहता है । भगवान्‌ रामको देखकर तत्त्वज्ञानी राजा जनक कहते हैं‒
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा ।
बरबस  ब्रह्मसुखहि  मन  त्यागा ॥
                                                                (मानस, बाल२१६।३)
 
‘ब्रह्मसुख’ में अखण्ड रस है और ‘अति अनुराग’में अनन्त रस है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान, मुक्ति होनेपर भी स्वयंकी भूखका अत्यन्त अभाव नहीं होता, प्रत्युत स्वयंमें अनन्त रसकी भूख रहती है ।
 
मुक्ति तो कर्मयोगीकी भी हो जाती है । जो ईश्वरको नहीं मानते, उनकी भी मुक्ति हो जाती है । जैन-सम्प्रदायमें भी मोक्षशिलाकी मान्यता है, जहाँ मुक्त पुरुष जाते हैं । अत: ईश्वरको न माननेपर भी मुक्ति अथवा ज्ञान तो हो सकता है, पर प्रेम होना असम्भव ही है । प्रेम बहुत विलक्षण है । भगवान्‌ भी प्रेमीके वशमें होते हैं‒‘अहं भक्तपराधीन:’, ज्ञानीके वशमें नहीं होते । भगवान्‌ने तो सबको विवेकज्ञान दिया हुआ है, जिससे वे मुक्त होकर, जड़तासे ऊँचे उठकर मेरे प्रेमी बन जायँ । भगवान्‌ ज्ञानस्वरूप और नित्य परिपूर्ण हैं; अत: उनमें ज्ञानकी भूख (जिज्ञासा) नहीं है, पर प्रेमकी भूख (प्रेम-पिपासा) अवश्य है ! इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒
मय्यर्पितमनोयुद्धिर्यो मद्धक्त: स मे प्रिय: ।
                                                                                                          (गीता १२।१४)
‘मेरेमें अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है ।’
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे