(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञानकी
दृष्टिसे भगवान्
कहते हैं‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’
(गीता १३
।१२) ‘उस
परमात्मतत्त्वको
न सत् कहा जा सकता
है और न असत् कहा
जा सकता है ।’ भक्तिकी
दृष्टिसे भगवान्
कहते हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९।११) ‘हे अर्जुन
! सत् और असत् भी
मैं ही हूँ ।’ इसलिये
भक्त सब जगह भगवान्को
ही देखता है‒
सो
अनन्य जाके असि
मति न टरइ हनुमंत
।
मैं
सेवक सचराचर रूप स्वामि
भगवंत ॥
(मानस, किष्किन्धा॰३)
सब
भगवान् ही हैं‒ऐसा
भाव होते-होतै
फिर मैं- पन भी मिट
जाता है और एक परमात्मा-ही-परमात्मा
रह जाते हैं ।
तू
तू करता तू भया, मुझमें रही
न हूँ ।
वारी
फेरी बलि गई, जित देखूँ तित
तू ॥
मैं-तू-यह-वह
कुछ नहीं रहता, केवल भगवान्
ही रहते हैं । ज्ञानमें
भी मैं-तू-यह-वह
कुछ नहीं रहता,
एक सच्चिदानन्दघन
ब्रह्म रह जाता
है । परन्तु ज्ञानका
आनन्द शान्त,
अखण्ड एकरस
रहता है । भक्तिका
आनन्द बढता रहता
है । प्रेमका
स्वभाव ही बढ़ना
है । जैसे उबलते
हुए दूधमें उछाल
आता है, ऐसे ही भक्तिके
आनन्दमें उछाल
आता रहता है । भगवान् रामको
देखकर तत्त्वज्ञानी
राजा जनक कहते
हैं‒
इन्हहि
बिलोकत अति अनुरागा
।
बरबस
ब्रह्मसुखहि
मन त्यागा
॥
(मानस, बाल॰२१६।३)
‘ब्रह्मसुख’
में अखण्ड रस है
और ‘अति अनुराग’में
अनन्त रस है । तात्पर्य है
कि तत्त्वज्ञान, मुक्ति होनेपर
भी स्वयंकी भूखका
अत्यन्त अभाव
नहीं होता, प्रत्युत स्वयंमें
अनन्त रसकी भूख
रहती है ।
मुक्ति
तो कर्मयोगीकी
भी हो जाती है ।
जो ईश्वरको नहीं
मानते, उनकी
भी मुक्ति हो जाती
है । जैन-सम्प्रदायमें
भी मोक्षशिलाकी
मान्यता है, जहाँ
मुक्त पुरुष जाते
हैं । अत: ईश्वरको
न माननेपर भी मुक्ति
अथवा ज्ञान तो
हो सकता है, पर प्रेम
होना असम्भव ही
है । प्रेम बहुत
विलक्षण है । भगवान्
भी प्रेमीके वशमें
होते हैं‒‘अहं भक्तपराधीन:’,
ज्ञानीके वशमें
नहीं होते । भगवान्ने
तो सबको विवेकज्ञान
दिया हुआ है, जिससे वे मुक्त
होकर, जड़तासे
ऊँचे उठकर मेरे
प्रेमी बन जायँ
। भगवान् ज्ञानस्वरूप
और नित्य परिपूर्ण
हैं; अत: उनमें
ज्ञानकी भूख (जिज्ञासा)
नहीं है, पर
प्रेमकी भूख (प्रेम-पिपासा)
अवश्य है ! इसलिये
भगवान् कहते
हैं‒
मय्यर्पितमनोयुद्धिर्यो
मद्धक्त: स मे प्रिय:
।
(गीता १२।१४)
‘मेरेमें
अर्पित मन-बुद्धिवाला
जो मेरा भक्त है,
वह मेरेको प्रिय
है ।’
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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