।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
भक्तिकी श्रेष्ठता
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ।
                                                      (गीता ७ । १७)
‘ज्ञानी (प्रेमी) भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है ।’
 
मन्मना भव मद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
                                                                                 (गीता ९।३४; १८।६५)
‘तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर ।’
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
                                                                                                    (गीता १८।६६)
‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा ।’
 
तत्त्वज्ञान देकर भगवान्‌ भी तृप्त हो जाते हैं और ज्ञानी भी तृप्त हो जाता है । परन्तु प्रेम देकर न भगवान्‌ तृप्त होते हैं, न भक्त ! प्रेमी भक्तके लिये कुछ भी कर्तव्य, ज्ञातव्य और प्राप्तव्य बाकी न रहनेपर भी उसमें प्रेम निरन्तर बढ़ता रहता है, मिलनकी लालसा नित्य रहती है, ऐसे ही भगवान्‌में भी प्रेम निरन्तर बढ़ता रहता है, तभी वे बार-बार अवतार लेकर तरह-तरहकी लीलाएँ करते हैं । तात्पर्य है कि भक्त और भगवान्‌‒दोनोंमें ही प्रेमकी भूख रहती है । नारदजी कहते हैं‒‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (भक्तिसूत्र ४१)’ ‘भगवान्‌में और उनके भक्तमें भेद नहीं है ।’
 
भगवान्‌की माया दुनियाको मोहित करती है, पर भक्तकी माया भगवान्‌को भी मोहित कर देती है । जैसे, बालकका मोह माँको वशमें कर लेता है; क्योंकि वह और किसीका न होकर माँका होता है । ऐसे ही भक्त भगवान्‌का होकर उनको अपने वशमें कर लेता है । भगवान्‌ कहते हैं‒
 
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी            जिमि बालक राखइ महतारी ॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई            तहँ राखइ जननी अरगाई ॥
प्रोढ़ भएँ तेहि सुत पर माता         प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥
मोरे प्रौढ तनय सम ग्यानी               बालक सुत सम दास अमानी ॥
जनहि मोर बल निज बल ताही        दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥
यहबिचारि पंडित मोहि भजहीं ।     पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥
                                                                                         (मानस, अरण्य४३।२-५)
 
भगवान्‌के छोटे बालक भक्त हैं और बड़े बालक ज्ञानी । जैसे माँको छोटे-बड़े सभी बालक प्रिय लगते हैं, पर वह सँभाल छोटेकी ही करती है, बड़ेकी नहीं; क्योंकि छोटा बालक सर्वथा माँके ही आश्रित रहता है । ऐसे ही भगवान्‌ अपने आश्रित भक्तकी पूरी सँभाल करते हैं । भगवान्‌ स्वयं अपने भक्तके योग (अप्राप्तकी प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्तकी रक्षा) का वहन करते है* । परन्तु ज्ञानीके योग और क्षेमका वहन कौन करे ? इसलिये ज्ञानी तो योगभ्रष्ट हो सकता है, पर भक्त योगभ्रष्ट नहीं हो सकता ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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  *अनन्याश्रिन्तयन्तो मां     ये जना: पर्युपासते ।
      तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम् ॥
                                                         (गीता ९।२२)