(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
प्रियो
हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं
स च मम प्रिय: ।
(गीता ७ । १७)
‘ज्ञानी
(प्रेमी) भक्तको
मैं अत्यन्त प्रिय
हूँ और वह भी मेरेको
अत्यन्त प्रिय
है ।’
मन्मना
भव मद्धक्तो मद्याजी
मां नमस्कुरु
।
(गीता ९।३४; १८।६५)
‘तू
मेरा भक्त हो जा,
मेरेमें मनवाला
हो जा, मेरा
पूजन करनेवाला
हो जा और मेरेको
नमस्कार कर ।’
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज
।
(गीता १८।६६)
‘सम्पूर्ण
धर्मोंका आश्रय
छोड़कर तू केवल
मेरी शरणमें आ
जा ।’
तत्त्वज्ञान
देकर भगवान्
भी तृप्त हो जाते
हैं और ज्ञानी
भी तृप्त हो जाता
है । परन्तु प्रेम
देकर न भगवान्
तृप्त होते हैं, न भक्त ! प्रेमी
भक्तके लिये कुछ
भी कर्तव्य, ज्ञातव्य और
प्राप्तव्य बाकी
न रहनेपर भी उसमें
प्रेम निरन्तर
बढ़ता रहता है,
मिलनकी लालसा
नित्य रहती है,
ऐसे ही भगवान्में
भी प्रेम निरन्तर
बढ़ता रहता है,
तभी वे बार-बार
अवतार लेकर तरह-तरहकी
लीलाएँ करते हैं
। तात्पर्य है
कि भक्त और भगवान्‒दोनोंमें
ही प्रेमकी भूख
रहती है । नारदजी
कहते हैं‒‘तस्मिंस्तज्जने
भेदाभावात्’ (भक्तिसूत्र
४१)’ ‘भगवान्में
और उनके भक्तमें
भेद नहीं है ।’
भगवान्की
माया दुनियाको
मोहित करती है, पर भक्तकी माया
भगवान्को भी
मोहित कर देती
है । जैसे, बालकका मोह माँको
वशमें कर लेता
है; क्योंकि
वह और किसीका न
होकर माँका होता
है । ऐसे ही भक्त
भगवान्का होकर
उनको अपने वशमें
कर लेता है । भगवान्
कहते हैं‒
सुनु
मुनि तोहि कहउँ
सहरोसा ।
भजहिं जे मोहि
तजि सकल भरोसा
॥
करउँ
सदा तिन्ह कै रखवारी
। जिमि बालक
राखइ महतारी ॥
गह
सिसु बच्छ अनल
अहि धाई
। तहँ राखइ
जननी अरगाई ॥
प्रोढ़
भएँ तेहि सुत पर
माता । प्रीति करइ
नहिं पाछिलि बाता
॥
मोरे
प्रौढ तनय सम ग्यानी । बालक सुत
सम दास अमानी ॥
जनहि
मोर बल निज बल ताही । दुहु कहँ
काम क्रोध रिपु
आही ॥
यहबिचारि
पंडित मोहि भजहीं
। पाएहुँ ग्यान
भगति नहिं तजहीं
॥
(मानस, अरण्य॰४३।२-५)
भगवान्के
छोटे बालक भक्त
हैं और बड़े बालक
ज्ञानी । जैसे
माँको छोटे-बड़े
सभी बालक प्रिय
लगते हैं, पर वह सँभाल छोटेकी
ही करती है, बड़ेकी नहीं;
क्योंकि छोटा
बालक सर्वथा माँके
ही आश्रित रहता
है । ऐसे ही भगवान्
अपने आश्रित भक्तकी
पूरी सँभाल करते
हैं । भगवान्
स्वयं अपने भक्तके
योग (अप्राप्तकी
प्राप्ति) और क्षेम
(प्राप्तकी रक्षा)
का वहन करते है* । परन्तु
ज्ञानीके योग
और क्षेमका वहन
कौन करे ? इसलिये ज्ञानी
तो योगभ्रष्ट
हो सकता है, पर भक्त योगभ्रष्ट
नहीं हो सकता ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒-
*अनन्याश्रिन्तयन्तो
मां ये जना: पर्युपासते
।
तेषां
नित्याभियुक्तानां
योगक्षेम वहाम्यहम्
॥
(गीता ९।२२)
|