(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
भगवान्की
स्तुति करते हुए
वेद कहते हैं‒
जे
ग्यान मान
बिमत्त
तव भव हरनि
भक्ति न आदरी ।
ते
पाई सुर दुर्लभ पदादपि परत
हम देखत हरी ॥
बिस्वास
करि सब आस परिहरि दास
तव जे होइ रहे ।
जपि नाम तव बिनु
श्रम तरहिं भव
नाथ सो समरामहे
॥
(मानस, उत्तर॰१३।३)
इसलिये
भगवान् कहते हैं‒
बाध्यमानोऽपि
मद्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः
।
प्राय:
प्रगल्भया भक्त्या
विषयैर्नाभिभूयते
॥
(श्रीमद्भा॰ ११।१४।१८)
‘उद्धवजी
! मेरा जो भक्त अभी
जितेन्द्रिय
नहीं हो सका है
और संसारके विषय
बार-बार उसे बाधा
पहुँचाते रहते
हैं, अपनी
ओर खींचते रहते
हैं, वह भी प्रतिक्षण
बढ़नेवाली मेरी
भक्तिके प्रभावसे
प्राय: विषयोंसे
पराजित नहीं होता
।’
भक्त
जितेन्द्रिय
न हो सके तो भी भगवान्
उसका पतन नहीं
होने देते । परन्तु
ज्ञानी जितेन्द्रिय
न हो तो उसका पतन
हो जाता है; क्योंकि उसकी
रक्षा करनेवाला
कोई है नहीं‒
यस्त्यसंयतषड्
वर्ग: प्रचण्डेन्द्रियसारथिः ।
ज्ञानवैराग्यरहितस्त्रिदण्डमुपजीवति ॥
सुरानात्मानमात्मस्थं
निह्नुते मां
च धर्महा ।
अविपक्वकषायोऽस्मादमुष्माच्च
विहीयते ॥
(श्रीमद्भा॰ ११।१८।४०-४१)
‘जिसने पाँच
इन्द्रियाँ और
मन--इन छहोंपर विजय
नहीं प्राप्त
की है, जिसके
इन्द्रियरूपी
घोड़े और बुद्धिरूपी
सारथि बिगड़े हुए
हैं और जिसके हृदयमें
न ज्ञान है, न वैराग्य है,
वह यदि त्रिदण्डी
संन्यासीका वेष
धारण करके पेट
पालता है तो वह
संन्यास-धर्मका
सत्यानाश ही कर
रहा है और अपने
पूज्य देवताओंको,
अपने-आपको और
अपने हृदयमें
स्थित मुझको ठगनेकी
चेष्टा करता है
। अभी उस वेषमात्रके
संन्यासीकी वासनाएँ
क्षीण नहीं हुई
हैं, इसलिये
वह इस लोक और परलोक
दोनोंसे हाथ धो
बैठता है ।’
तात्पर्य
है कि भगवान्का
अनादर और अपना
अभिमान होनेके
कारण ज्ञानमार्गीका
पतन हो जाता है
। यद्यपि अभिमानके
कारण भक्तिमार्गीका
भी पतन हो सकता
है तथापि भगवन्निष्ठ
होनेके कारण भगवान्
उसको सँभाल लेते
हैं । कारण कि
भक्तमें तो भगवान्का
बल (आश्रय) रहता
है, पर ज्ञानीमें
अपना बल रहता है‒‘जनहि मोर बल
निज बल ताही’ (मानस, अरण्य॰ ४३।५) । अत:
भक्तकी रक्षा
तो भगवान् कर
देते हैं, पर ज्ञानीकी
रक्षा कौन करे ? इसलिये ब्रह्माजी
भगवान्से कहते
हैं‒
श्रेय:स्रुतिं
भक्तिमुदस्य
ते विभो
क्लिश्यन्ति
ये केवलबोधलब्धये
।
तेषामसौ क्लेशल
एव शिष्यते
नान्यद् यथा
स्थूलतुषावघातिनाम्
॥
(श्रीमद्भा॰१०।१४।४)
‘भगवन् ! जैसे
थोथी भूसी कूटनेवालेको
श्रमके सिवाय
और कुछ हाथ नहीं
लगता, ऐसे
ही जो मनुष्य कल्याणके
मार्गरूप आपकी
भक्तिको छोड़कर
केवल ज्ञान-प्राप्तिके
लिये क्लेश उठाते
हैं, उनको क्लेशके
सिवाय और कुछ हाथ
नहीं लगता !’
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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