।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भक्तिकी श्रेष्ठता
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें ‘विवेक’ मुख्य है और भक्तिमार्गमें ‘विश्वास’ मुख्य है । विवेकमें अपनी बुद्धिकी प्रधानता है, पर विश्वासमें भगवान्‌के आश्रयकी प्रधानता है । विवेकमें तो सत् और असत्, आत्मा और अनात्मा दो हैं, पर विश्वासमें दो नहीं हैं । भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌के सिवाय दूसरेका विश्वास ही नहीं है । एक ब्रजवासी भक्तसे किसी साधुने कहा कि हम तो कन्हैयाके अनन्य भक्त हैं, तुम क्या हो ? वह भक्त बोला कि हम तो कन्हैयाके फनन्य भक्त हैं । साधुने पूछा कि फनन्य भक्त क्या होता है भाई ? वह बोला कि पहले आप बताओ कि अनन्य भक्त क्या होता है ? साधुने कहा कि जो सूर्य, शक्ति, गणेश, शिव, ब्रह्म आदि किसीको भी नहीं मानता, केवल कन्हैयाको ही मानता है वह अनन्य भक्त होता है । भक्तने कहा कि बाबाजी, हम तो इन सुसुरोंका नाम भी नहीं जानते कि ये कौन होते हैं, इसलिये हम फनन्य भक्त हो गये ! अपरा (जगत्) और परा (जीव)‒दोनों प्रकृतियाँ परमात्माकी हैं* । प्रकृति तो परमात्माकी है, पर परमात्मा प्रकृतिके नहीं हैं । जैसे, दियासलाईमें अग्नि तो रहती है, पर उसकी प्रकाशिका और दाहिका शक्ति नहीं रहती; अत: शक्तिके बिना अग्नि रह सकती है, पर अग्निके बिना शक्ति नहीं रह सकती । ऐसे ही प्रकृति (परा-अपरा)-के बिना परमात्मा रह सकते हैं पर परमात्माके बिना प्रकृति नहीं रह सकती । शक्तिमान् शक्तिके अधीन नहीं है, जबकि शक्ति शक्तिमान्‌के अधीन है । अत: जीव और जगत्‒दोनों परमात्माके अधीन हैं‒
क्षर प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक: ।
                                                                           (श्वेताश्वतर १।१०)
                            क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
                विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥
                                                                                 (श्वेताश्वतर ५।१)
तात्पर्य है कि आत्मा मुख्य नहीं है, प्रत्युत परमात्मा मुख्य हैं । विवेकसे अत्माका बोध (आत्मज्ञान) होता है और विश्वाससे परमात्माका बोध (परमात्मज्ञान) होता है । इसलिये विवेकसे भी विश्वास तेज है ।
 
मनुष्यमें तीन शक्तियाँ हैं‒करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । प्राप्त करनेकी शक्ति मनुष्यमें नहीं है । प्राप्ति परमात्माकी ही होती है । करने और जाननेकी शक्तिसे प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और स्वरूपका बोध होता है । परन्तु माननेकी शक्तिसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । इसलिये माननेकी शक्ति अर्थात् विश्वास क्रियाशक्ति और विवेकशक्तिसे भी तेज है ।
 
विश्वास वास्तवमें वही है, जो अविनाशी, अपरिवर्तनशील वस्तुपर हो । नाशवान्, परिवर्तनशील वस्तुपर विश्वास करना विश्वासका महान् दुरुपयोग है । नाशवान् वस्तुपर विश्वास करके ही जीव जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा है । अत: नाशवान् वस्तुपर विश्वास महान् घातक है ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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  *भूमिरापोऽनलो वायु:   खं  मनो बुद्धिरेव च ।
      अहङ्कार इतीयं  मे   भिन्ना   प्रकृतिरष्टधा ॥
      अपरेयमितस्त्वन्यां   प्रकृतिं  विद्धि मे पराम् ।
     जीवभूतां  महाबाहो   ययेदं   धार्यते  जगत्‌ ॥
                                                       (गीता ७ । ४-५)