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(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञानमार्गमें
‘विवेक’ मुख्य है
और भक्तिमार्गमें
‘विश्वास’ मुख्य
है । विवेकमें
अपनी बुद्धिकी
प्रधानता है, पर विश्वासमें
भगवान्के आश्रयकी
प्रधानता है । विवेकमें
तो सत् और असत्, आत्मा और अनात्मा
दो हैं, पर विश्वासमें
दो नहीं हैं । भक्तिमार्गमें
एक भगवान्के
सिवाय दूसरेका
विश्वास ही नहीं
है । एक ब्रजवासी
भक्तसे किसी साधुने
कहा कि हम तो कन्हैयाके
अनन्य भक्त हैं,
तुम क्या हो ? वह भक्त बोला
कि हम तो कन्हैयाके
फनन्य भक्त हैं
। साधुने पूछा
कि फनन्य भक्त
क्या होता है भाई ? वह बोला कि पहले
आप बताओ कि अनन्य
भक्त क्या होता
है ? साधुने
कहा कि जो सूर्य,
शक्ति, गणेश,
शिव, ब्रह्म
आदि किसीको भी
नहीं मानता, केवल कन्हैयाको
ही मानता है वह
अनन्य भक्त होता
है । भक्तने
कहा कि बाबाजी, हम तो इन
सुसुरोंका नाम
भी नहीं जानते
कि ये कौन होते
हैं, इसलिये
हम फनन्य भक्त
हो गये ! अपरा
(जगत्) और परा (जीव)‒दोनों
प्रकृतियाँ परमात्माकी
हैं* । प्रकृति तो
परमात्माकी है,
पर परमात्मा
प्रकृतिके नहीं
हैं । जैसे, दियासलाईमें
अग्नि तो रहती
है, पर उसकी
प्रकाशिका और
दाहिका शक्ति
नहीं रहती; अत: शक्तिके बिना
अग्नि रह सकती
है, पर अग्निके
बिना शक्ति नहीं
रह सकती । ऐसे ही
प्रकृति (परा-अपरा)-के
बिना परमात्मा
रह सकते हैं पर
परमात्माके बिना
प्रकृति नहीं
रह सकती । शक्तिमान्
शक्तिके अधीन
नहीं है, जबकि
शक्ति शक्तिमान्के
अधीन है । अत: जीव
और जगत्‒दोनों
परमात्माके अधीन
हैं‒
क्षर
प्रधानममृताक्षरं
हर: क्षरात्मानावीशते
देव एक: ।
(श्वेताश्वतर॰ १।१०)
क्षरं त्वविद्या
ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये
ईशते यस्तु सोऽन्यः
॥
(श्वेताश्वतर॰ ५।१)
तात्पर्य
है कि आत्मा मुख्य
नहीं है, प्रत्युत परमात्मा
मुख्य हैं । विवेकसे
अत्माका बोध (आत्मज्ञान)
होता है और विश्वाससे
परमात्माका बोध
(परमात्मज्ञान)
होता है । इसलिये विवेकसे
भी विश्वास तेज
है ।
मनुष्यमें
तीन शक्तियाँ
हैं‒करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति
और माननेकी शक्ति
। प्राप्त करनेकी
शक्ति मनुष्यमें
नहीं है । प्राप्ति
परमात्माकी ही
होती है । करने
और जाननेकी शक्तिसे
प्राप्ति नहीं
होती, प्रत्युत संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद
और स्वरूपका बोध
होता है । परन्तु
माननेकी शक्तिसे
परमात्माकी प्राप्ति
हो जाती है । इसलिये
माननेकी शक्ति
अर्थात् विश्वास
क्रियाशक्ति
और विवेकशक्तिसे
भी तेज है ।
विश्वास
वास्तवमें वही
है, जो अविनाशी, अपरिवर्तनशील
वस्तुपर हो । नाशवान्,
परिवर्तनशील
वस्तुपर विश्वास
करना विश्वासका
महान् दुरुपयोग
है । नाशवान्
वस्तुपर विश्वास
करके ही जीव जन्म-मरणरूप
बन्धनमें पड़ा
है । अत: नाशवान् वस्तुपर
विश्वास महान्
घातक है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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*भूमिरापोऽनलो
वायु: खं मनो बुद्धिरेव
च ।
अहङ्कार
इतीयं मे भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा
॥
अपरेयमितस्त्वन्यां
प्रकृतिं
विद्धि मे पराम्
।
जीवभूतां
महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
(गीता
७ । ४-५)
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