(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
विश्वास-मार्ग
(भक्ति)-में नाशवान्की
आसक्ति मिटानेके
लिये विवेक बहुत
सहायक है । नाशवान्का
विश्वास विवेक-विरुद्ध
है । विवेक-विरुद्ध
विश्वास रद्दी
हो जाता है । अत:
विश्वास विवेक-विरुद्ध
नहीं होना चाहिये
।
ज्ञानमें
स्वरूप मुख्य
है और भक्तिमें
भगवान् मुख्य
हैं । इसलिये ज्ञानी
स्वरूपमें स्थित
होता है‒‘समदुःखसुखः
स्वस्थ:’ (गीता १४।२४) और
भक्त भगवान्में
स्थित होता है‒‘निवसिष्यसि
मय्येव’ (गीता१२।८) । स्वरूपमें
स्थित होनेमें
अखण्ड रस है और
परमात्मामें
स्थित होनेमें
प्रतिक्षण वर्धमान
अनन्त रस है ।
ज्ञानीको
भक्ति प्राप्त
हो जाय, यह नियम
नहीं है, पर
भक्तको ज्ञानकी
प्राप्ति भी हो
जाती है, यह
नियम है । यद्यपि
भक्तको ज्ञानकी
आवश्यकता नहीं
है और वह भगवान्के
चिन्तनमें, प्रेममें मस्त
रहता है‒‘तुष्यन्ति
च रमन्ति च’ (गीता १०।९),
तथापि उसमें
किसी प्रकारकी
कमी न रहे, इसलिये
भगवान् अपनी
तरफसे उसको ज्ञान
प्रदान करते हैं*। रामायणमें
आया है‒
मम
दरसन फल परम अनूपा
।
जीव
पाव निज सहज स्वरूपा
॥
(मानस, अरण्य॰३६।५)
राम
भजत सोइ मुकुति
गोसाईं ।
अनइच्छित
आवइ बरिआईं ॥
(मानस, उत्तर॰ ११९।२)
जैसे
भक्तिमार्गमें
प्रेम बढ़ता है, ऐसे ही ज्ञानमार्गमें
ज्ञानकी भूमिका
बढ़ती रहती है ।
इसलिये चतुर्थ
भूमिकामें ज्ञानप्राप्ति
होनेपर भी आगे
पाँचवीं, छठी
और सातवीं भूमिका
होती है । वास्तवमें
देखा जाय तो ज्ञान
नहीं बढ़ता, प्रत्युत अज्ञान
मिटता है । अत: भूमिकाएँ
ज्ञानकी नहीं
होतीं, प्रत्युत
अज्ञानकी होती
हैं । ज्यों-ज्यों
जड़ता मिटती है
त्यों-त्यों भूमिका
बढ़ती जाती है । परन्तु प्रेमका
बढ़ना और तरहका
है । ज्ञानमें
तो संसारसे उपरति
मुख्य है, पर
भक्तिमें भगवान्की
ओर आकर्षण मुख्य
है । ज्ञानमें
तो असत्का त्याग
करनेपर भी असत्की
मानी हुई सूक्ष्म
सत्ता (अहम्) साथ
रहती है, पर
भक्तिमें
प्रेम बढ़नेपर
असत् स्वत: छूट
जाता है‒संसारकी
याद ही नहीं रहती
अर्थात् ज्ञानकी
छठी भूमिका ‘पदार्थभावना’
स्वतःसिद्ध हो
जाती है ।
विवेकमें
सत् और असत्‒दोनों
रहते हैं, इसलिये ज्ञानमार्गमें
अहम् दूरतक साथ
रहता है, जिससे
चतुर्थ भूमिकामें
तत्त्वज्ञान
होनेपर भी पाँचवीं,
छठी और सातवीं
भूमिका होती है
। सूक्ष्म
अहम् रहनेके कारण
ही दर्शन और दार्शनिकोंमें
भेद रहता है; क्योंकि
अहं भेदका जनक
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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*तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं
तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो
ज्ञानदीपेन भास्वता
॥
(गीता १०।११)
‘उन भक्तोंपर
कृपा करनेके लिये
ही उनके स्वरूप
(होनेपन)-में रहनेवाला
मैं उनके अज्ञानजन्य
अन्धकारको देदीप्यमान
ज्ञानरूप दीपकके
द्वारा सर्वथा
नष्ट कर देता हूँ
।’
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