।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
शरत्पूर्णिमा, महर्षि वाल्मीकि-जयन्ती, कार्तिक स्नानारम्भ
भक्तिकी श्रेष्ठता
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
       विश्वास-मार्ग (भक्ति)-में नाशवान्‌की आसक्ति मिटानेके लिये विवेक बहुत सहायक है । नाशवान्‌का विश्वास विवेक-विरुद्ध है । विवेक-विरुद्ध विश्वास रद्दी हो जाता है । अत: विश्वास विवेक-विरुद्ध नहीं होना चाहिये ।
 
ज्ञानमें स्वरूप मुख्य है और भक्तिमें भगवान्‌ मुख्य हैं । इसलिये ज्ञानी स्वरूपमें स्थित होता है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थ:’ (गीता १४।२४) और भक्त भगवान्‌में स्थित होता है‒‘निवसिष्यसि मय्येव’ (गीता१२।८) । स्वरूपमें स्थित होनेमें अखण्ड रस है और परमात्मामें स्थित होनेमें प्रतिक्षण वर्धमान अनन्त रस है ।
 
ज्ञानीको भक्ति प्राप्त हो जाय, यह नियम नहीं है, पर भक्तको ज्ञानकी प्राप्ति भी हो जाती है, यह नियम है । यद्यपि भक्तको ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है और वह भगवान्‌के चिन्तनमें, प्रेममें मस्त रहता है‒‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ (गीता १०।९), तथापि उसमें किसी प्रकारकी कमी न रहे, इसलिये भगवान्‌ अपनी तरफसे उसको ज्ञान प्रदान करते हैं*। रामायणमें आया है‒
मम दरसन फल   परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज स्वरूपा ॥
                                                                (मानस, अरण्य३६।५)
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं ।
अनइच्छित   आवइ   बरिआईं ॥
                                                                (मानस, उत्तर ११९।२)
जैसे भक्तिमार्गमें प्रेम बढ़ता है, ऐसे ही ज्ञानमार्गमें ज्ञानकी भूमिका बढ़ती रहती है । इसलिये चतुर्थ भूमिकामें ज्ञानप्राप्ति होनेपर भी आगे पाँचवीं, छठी और सातवीं भूमिका होती है । वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञान नहीं बढ़ता, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अत: भूमिकाएँ ज्ञानकी नहीं होतीं, प्रत्युत अज्ञानकी होती हैं । ज्यों-ज्यों जड़ता मिटती है त्यों-त्यों भूमिका बढ़ती जाती है । परन्तु प्रेमका बढ़ना और तरहका है । ज्ञानमें तो संसारसे उपरति मुख्य है, पर भक्तिमें भगवान्‌की ओर आकर्षण मुख्य है । ज्ञानमें तो असत्‌का त्याग करनेपर भी असत्‌की मानी हुई सूक्ष्म सत्ता (अहम्) साथ रहती है, पर भक्तिमें प्रेम बढ़नेपर असत् स्वत: छूट जाता है‒संसारकी याद ही नहीं रहती अर्थात् ज्ञानकी छठी भूमिका ‘पदार्थभावना’ स्वतःसिद्ध हो जाती है ।
 
विवेकमें सत् और असत्‌‒दोनों रहते हैं, इसलिये ज्ञानमार्गमें अहम् दूरतक साथ रहता है, जिससे चतुर्थ भूमिकामें तत्त्वज्ञान होनेपर भी पाँचवीं, छठी और सातवीं भूमिका होती है । सूक्ष्म अहम् रहनेके कारण ही दर्शन और दार्शनिकोंमें भेद रहता है; क्योंकि अहं भेदका जनक है ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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 *तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं       तम:      
    नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                                                                                  (गीता १०।११)
 
       ‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन)-में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’
 
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