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(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञानमार्गमें
असत्का निषेध
करते हैं, जिससे असत्की
सत्ता आती है;
क्योंकि असत्की सत्ता
स्वीकार की है, तभी तो निषेध
करते हैं ! इसलिये विवेकमार्ग
(ज्ञान) में तो द्वैत
है, पर विश्वासमार्ग
(भक्ति) में अद्वैत
है । असत्से सर्वथा
सम्बन्ध-विच्छेद
अर्थात् अहम्का
सर्वथा अभाव प्रेम
प्राप्त होनेपर
ही होता है । गोस्वामीजी
कहते हैं‒
प्रेम
भगति जल बिनु रघुराई
।
अभिअंतर
मल कबहुँ न जाई
॥
(मानस, उत्तर॰ ४९।३)
अहम्का
सर्वथा अभाव होनेपर
दर्शन और दार्शनिकोंमें
भेद नहीं रहता, प्रत्युत ‘वासुदेव: सर्वम्’ रहता है ।
अध्यास
या भ्रम दो प्रकारका
होता है‒उपाधि-सहित
और उपाधि-रहित
। जैसे, दर्पणमें
मुखका भ्रम उपाधि-सहित
है; क्योंकि
‘दर्पणमें मुख
नहीं है’‒इस तरह
भ्रमकी निवृत्ति
होनेपर भी दर्पणरूपी
उपाधि होनेसे
दर्पणमें मुख
दीखता है । परन्तु
रज्जुमें सर्पका
भ्रम उपाधि-रहित
है; क्योंकि
‘यह सर्प नहीं है’‒इस
तरह भ्रमकी निवृत्ति
होनेपर फिर सर्प
नहीं दीखता, प्रत्युत रज्जु
ही दीखती है । ज्ञानमें
‘उपाधि-सहित भ्रम’
मिटता है; अत:
संसार तो दीखता
है, पर उसमें
आकर्षण नहीं होता
। परन्तु भक्तिमें ‘उपाधि-रहित
भ्रम’ मिटता है;
अत: संसार नहीं
दीखता, प्रत्युत
केवल भगवान्
ही दीखते हैं‒‘वासुदेव: सर्वम्
।’ इसलिये भगवान्ने
ज्ञानियोंकी
अपेक्षा भक्तोंको
श्रेष्ठ बताया
है ।
मय्यावेश्य
मनो ये मां नित्ययुक्ता
उपासते ।
श्रद्धया
परयोपेतास्ते मे युक्ततमा
मता: ॥
(गीता १२।२)
‘मेरेमें
मनको लगाकर नित्य-निरन्तर
मेरेमें लगे हुए
जो भक्त परम श्रद्धासे
युक्त होकर मेरी
उपासना करते हैं,
वे मेरे मतमें
सर्वश्रेष्ठ
योगी हैं ।’
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒‘जित देखूँ
तित तू’
पुस्तकसे
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जैसे
बालक हर
अवस्थामें
माँको ही
पुकारता है, ऐसे
ही हर
अवस्थामें
भगवान्को
पुकारो ।
☼ ☼ ☼
न्यायपूर्वक
काम
करनेवालेके
चित्तमें
शान्ति और
अन्यायपूर्वक
काम
करनेवालेके
चित्तमें
अशान्ति
रहती है ।
☼ ☼ ☼
जिससे
अपना और
दूसरोंका,
वर्तमानमें
और परिणाममें अहित
होता हो, वह सब
असत्-कर्म
है ।
☼ ☼ ☼
संसारमें
जो वस्तु
आपके हक
(अधिकार) की और
प्राप्त है,
वह भी सदा
आपके साथ
नहीं रहेगी,
फिर जो वस्तु
बिना हककी और
अप्राप्त है,
उसकी आशा
करनेसे क्या लाभ
?
☼ ☼ ☼
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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