।। श्रीहरिः ।।



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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
भक्तिकी श्रेष्ठता
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें असत्‌का निषेध करते हैं, जिससे असत्‌की सत्ता आती है; क्योंकि असत्‌की सत्ता स्वीकार की है, तभी तो निषेध करते हैं ! इसलिये विवेकमार्ग (ज्ञान) में तो द्वैत है, पर विश्वासमार्ग (भक्ति) में अद्वैत है । असत्‌से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् अहम्‌का सर्वथा अभाव प्रेम प्राप्त होनेपर ही होता है । गोस्वामीजी कहते हैं‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
                                                                 (मानस, उत्तर ४९।३)
 
अहम्‌का सर्वथा अभाव होनेपर दर्शन और दार्शनिकोंमें भेद नहीं रहता, प्रत्युत ‘वासुदेव: सर्वम्’ रहता है ।
 
अध्यास या भ्रम दो प्रकारका होता है‒उपाधि-सहित और उपाधि-रहित । जैसे, दर्पणमें मुखका भ्रम उपाधि-सहित है; क्योंकि ‘दर्पणमें मुख नहीं है’‒इस तरह भ्रमकी निवृत्ति होनेपर भी दर्पणरूपी उपाधि होनेसे दर्पणमें मुख दीखता है । परन्तु रज्जुमें सर्पका भ्रम उपाधि-रहित है; क्योंकि ‘यह सर्प नहीं है’‒इस तरह भ्रमकी निवृत्ति होनेपर फिर सर्प नहीं दीखता, प्रत्युत रज्जु ही दीखती है । ज्ञानमें ‘उपाधि-सहित भ्रम’ मिटता है; अत: संसार तो दीखता है, पर उसमें आकर्षण नहीं होता । परन्तु भक्तिमें ‘उपाधि-रहित भ्रम’ मिटता है; अत: संसार नहीं दीखता, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही दीखते हैं‒‘वासुदेव: सर्वम् ।’ इसलिये भगवान्‌ने ज्ञानियोंकी अपेक्षा भक्तोंको श्रेष्ठ बताया है ।
 
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते   मे   युक्ततमा मता: ॥
                                                                             (गीता १२।२)
‘मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं ।’
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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जैसे बालक हर अवस्थामें माँको ही पुकारता है, ऐसे ही हर अवस्थामें भगवान्‌को पुकारो ।
न्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें शान्ति और अन्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें अशान्ति रहती है ।
जिससे अपना और दूसरोंका, वर्तमानमें और परिणाममें अहित होता हो, वह सब असत्‌-कर्म है ।
संसारमें जो वस्तु आपके हक (अधिकार) की और प्राप्त है, वह भी सदा आपके साथ नहीं रहेगी, फिर जो वस्तु बिना हककी और अप्राप्त है, उसकी आशा करनेसे क्या लाभ ?
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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