।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
त्रयोदशी श्राद्ध, महात्मा गाँधी-जयन्ती
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्तव्य कर्म वही होता है, जिसमें अपने स्वार्थका त्याग एवं दूसरेका हित होता हो । स्वार्थ-बुद्धिसे किया जानेवाला कर्म कर्तव्य नहीं, कर्म है । यह तो कर्माधिकाररहित पशु-पक्षी आदि योनियोंमें भी पाया जाता है । तब फिर मानव-जीवनकी क्या सार्थकता हुई ! अतः मनुष्यको चाहिये कि अपने स्वार्थको त्यागकर दूसरोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे । सुखकी अपेक्षा भी हमारी दृष्टि उनके हितकी ओर अधिक रहनी चाहिये । नीतिकार कहते हैं
संतोषस्त्रिषु कर्तव्य:      स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वाध्याये जपदानयोः ॥
 
अर्थात् स्त्री, भोजन और धनके विषयमें संतोष करना चाहिये, क्योंकि ये तो पूर्वजन्मोंके कर्मोंके फलस्वरूप प्राप्त हुए हैं । स्वाध्याय, जप और दानमें संतोष नहीं करना चाहिये, क्योंकि वे नये कर्म हैं । उनमें यदि कोई संतोष करेगा तो वह कर्तव्यसे च्युत हो जायगा । अत: कर्तव्य कर्ममें तत्परतासे सदा लगे रहना चाहिये ।
 
धन-सम्पत्ति आदिके विषयमें नीति हमें संतोष करनेको कहती है । इसका आशय यह है कि हम धन आदिकी प्राप्तिमें संतुष्ट रहेंजो कुछ भी मिल जाय, उसके प्रति हमारे मनमें असंतोष न हो; परंतु कर्तव्य-कर्मके अनुष्ठानमें हम कभी कमी न लायें ।
 
यह प्राकृतिक नियम है कि मनुष्यकी जिस काममें लगन होती है, उसे वह तत्परतासे करता है और लगनवालेकी उन्नति भी होती ही है ।
 
आज देशमें जो बेकारी सर्वत्र व्याप्त है, इसके अनेक कारणोंमें एक प्रमुख कारण यह भी है कि लोग अपना कर्तव्य कर्म नहीं करते । यदि उत्तम-से-उत्तम काममें मनुष्य निरन्तर लगा रहे, स्वाद, शौकीनी, सजावटको छोड़कर साधारण वस्तुओंसे ही अपना जीवन-निर्वाह कर ले, दूसरेके हित और सेवामें अपनी वस्तुओंका और अपनी शक्तिका विनियोग करे, दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करे, दूसरेका हक कभी अपने हकमें न आने दे और दक्षतापूर्वक अपना कर्तव्य कर्म करता रहे तो उसे बेकारी नहीं सताती । जो यह कहा जाता है कि हमारे प्रारब्धमें जो है वह अवश्य मिलेगा’, इसका प्रयोजन चिन्ता न करनेमें है, न कि क्रियारहित होनेमें; अत: कर्तव्य कर्म करनेमें कभी कमी नहीं लानी चाहिये । इस प्रकार लगनके साथ काम करनेवालेकी व्यावहारिक एवं पारमार्थिकदोनों प्रकारकी उन्नति होती ही है । पर दोनोंमें एक अन्तर रहता है । व्यावहारिक उन्नतिके लिये लगनके साथ कर्म करनेवालोंमें कार्यकुशलताकार्य करनेकी योग्यता तो बढ़ती है, पर उन्हें धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि भी मिलें हीयह नियम नहीं है । क्योंकि ये सब पूर्वकृत कर्मोंकेप्रारब्धके अधीन हैं । इसके विपरीत, पारमार्थिक उन्नतिके लिये चेष्टा करनेवालेको सफलता मिलती ही है अर्थात् उसके अन्दर प्रेम, बोध, शान्ति, उत्साह तथा प्रमाद-आलस्यका त्याग और कार्य-कुशलता आदि गुण अवश्य आते हैं एवं उसके द्वारा तत्परतासे काम भी होता है; क्योंकि ये उसकी निजी वस्तुएँ हैं ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे